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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-३
२६७ कहा कि आगमों में प्रतिमा का उल्लेख है या नहीं मुनि महाराज से ही पूछ लिजिए। यह कहकर मैं चुप रहा तब श्री प्रकाश मुनि महाराज ने जवाब दिया कि आगम सूत्रों में प्रतिमा का उल्लेख तो है, परन्तु प्रतिमा पूजा का उल्लेख नहीं है। मैंने जवाब दिया कि रात काफी हो गई है अतः आप प्रतिमा के अस्तित्व तक आ जाइये। पूजा के बारे में फिर कभी सोचेंगे।
श्री प्रकाश मुनि महाराज अभी जीवित है और वे श्रावक भाई भी जीवित है आप चाहे तो चित्तौड़जाकर या मुनि महाराज से पूछ कर तसल्ली कर सकते है।
श्री प्रकाश मुनि महाराज का यह उत्तर भी आपके लिए विचारणीय है परन्तु आपके लिए यह भी शायद निरर्थक ही होगा। क्योंकि आपकी पुस्तक और पत्र देखकर लगता है कि अरहंत भगवंत की प्रतिमा के विरोध की भावनायें आपके रगरग में घुस गई है, जिसका निकलना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य है - आगे आपने मूर्ति को चोर उठाकर ले जाने, तोड़ देने संबंधी लिखकर प्रतिमा का प्रभाव नहीं शरण नहीं करके लिखा, जिसके उत्तर में मालूम हो कि स्वयं तीर्थकर प्रभू महावीर जब छद्मस्थ अवस्था में है, जिनका शरण स्वीकार्य कहा गया है। इन्हीं तीर्थंकर प्रभूमहावीर को अनार्य आदि कई लोगों ने क्या कम सताया है। क्या इनको मारा पीटा नहीं, क्या इनको कानों में कीले ठोककर कष्ट नहीं दिया गया ? क्या इनको चंड कौशीक ने डसा नहीं? क्या इनको देवता ने कष्ट दिया नहीं? इतनाहोने से क्या इनका प्रभाव खत्म हो गया ? नहीं, कदापि नहीं, भक्ति करने वाले भक्ति करते हैं और कष्ट देने वाले कष्ट देते है। अब आपके दूसरे पत्र का जवाब1. दशवैकालिंक सूत्र को हमने माना है मानते है और इसी कारण से मात्र अरहंत प्रभू की प्रतिमा पूजा को हीधर्मनहीं मानकर आगे बढ़ते ही है। अन्यथा आज भी जैन मूर्तिपूजा मानने वाले घर छोड़कर हजारों साधु साध्वी नहीं बनते।
मूर्ति पूजा मूर्ति अस्तित्व तो इसलिए है कि आज प्रत्यक्ष, साक्षात् तीर्थकर प्रभू नहीं है अतः इनकी अनुपस्थिति के कारण इनकी प्रतिकृति अर्थात् प्रतिमा के सामने गुणमान पूजा, भक्ति आदिकर आपकी भावनाओं की पूर्ति करते हैं। जिसका एक मात्र उद्देश्य तीर्थकर प्रभू के प्रति आस्था, अनुबंध, श्रद्धा उत्पन्न हो जो कि समकित की पुष्टि का कारण है।
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