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परिशिष्ठ-३ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा कोष, में प्रतिमा मंदिर, समाधि स्थल ही लिखा है। ज्ञान कही भी नहीं । आपने भी अपनी इसी पुस्तक में पेज नम्बर ३ मे ठाणांग सूत्र का हवाला देकर अवधि ज्ञानी मनः पर्यवज्ञानी, केवल ज्ञानी लिखा है परन्तु यह नहीं लिखा कि अवधिचेइय, मन पर्यव चेइय या केवल चेइय नहीं लिखा। ठीक इसी तरह पेज नं. १४, २३, २४,२६, ४० आदि में जैसे दर्शन, ज्ञान, चारित्र लिखा है न कि दर्शन, चेइय, चारित्र एवं ओहीणाण पेज नं. ८ (ज्ञान) न कि शास्त्र चेइय इन सभी जगह आपने ज्ञान को ज्ञान ही लिखा है। यहां आपने कहीं भी ज्ञान के लिये चैत्य शब्द का प्रयोग नहीं किया। आपने ठाणांग सूत्र के हवाले से भी ओहीणाण आदि का उदाहरण भी दिया। अतः अपके प्रमाणो से भी आप द्वारा दिए गए आगम प्रमाणों से भी ज्ञान को णाण (ज्ञान) ही कहा गया है। ज्ञान के लिए चैत्य शब्द नहीं है सिर्फ यहां ही अरहंत चेइयाणिवा की जगह ही आपको चैत्य शब्द का अर्थ ज्ञान समझ में आता है और इसी से आप अरहंत प्रतिमा के अर्थ को नकारते हुए अपनी मरजी का अर्थ कर मन पर्यवज्ञानी अरहंत ऐसा करते हैं क्योंकि यह अर्थ आपकी मान्यता के विरुद्ध जाता
करीबन पांच-छह वर्ष पूर्व जब पहली बार श्री प्रकाशमूनि महाराज से मिलना हुआ तो महाराज ने रात को प्रतिक्रमण के बाद बातचीत करने को कहा। हम समय पर गए बातचीत शुरु हुई शुरुआत में हमारी बात अरहंत या अरिहंत के शब्द से शुरु हई जो कि 10-15 मिनट में ही खत्म हो गई। इसके बाद सम्यक्त्व के भेद (समकित मोहनीय, मिश्र मोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय आदि) के बारे में चली जो कि करीबन डेढ घंटे तक चली। इसका क्या परिणाम आया इसके लिए आप कभी उन मुनि महाराज से मिलकर ही मालूम कर सकते है क्योकि मेरा लिखना आपके गले में उतरना असंभव है। रात को करीबन दस बजे गए थे। इस सभी चर्चा के अंत में उस समय चार-पांच श्रावक भाई जो प्रतिक्रमण करने आए थे उपस्थित थे। उनमें से एक माईजो कि शायद वकील थे.मुझसे पूछा गया कि आप इतना जानते हो तो मूर्ति पूजा क्यों करते हो ? मैंने उनसे इस विषय में चर्चा न करने को कहा फिर भी इन्होने बात को चालू की, जिसमें इन्होंने एक प्रश्न यह भी किया कि आगम सूत्रों में प्रतिमा का उल्लेख कहां है मैंने वहीं पर श्री प्रकाश मुनिराज आदि मुनि महाराज एवं चार-पांच श्रावक भाई और मैं और मेरा पुत्र सभी एकदम पासपास ही बैठे हुए थे
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