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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा 'नमुत्थुणं' का आलापक बोला है । जीवाभिगम सूत्र १४२ का आलापक 'जेणेव जिणपडिमा तेणेव उवागच्छति जिणपडिमाणं आलोए पमाणं करेइरत्ता लोमहत्थगं गेण्हति २ त्ता तं चेव सव्वं जं जिणपडिमाणं जाव सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं वंदति नमंसति ।' इससे तो यह निश्चय होता है कि आगमो में जहा-जहा पर "जिण पडिमा" लिखा हैं वहा वहा पर उसका अर्थ जिनेश्वर भगवान की प्रतिमा होना चाहिये, अगर आगमों के कर्ता को ज्ञातासूत्र में कामदेव प्रतिमा इष्ट होता, तो वहाँ पर स्पष्टतासे उसका उल्लेख अलग ढंग से करते । क्योंकि अन्य स्थलों पर "जिणपडिमा" का अर्थ जिनेश्वर प्रतिमा किया है तो सिर्फ ज्ञाता सूत्र में उसका ‘कामदेव प्रतिमा' अर्थ कैसे हो सकता है ?
दूसरी बात सूत्र में वाचनान्तर में 'जहा सूरियाभे जिण पडिमाओ अच्चेत्ति'' पाठ है, इससे तो एकदम स्पष्ट है सूर्याभने जैसे जिन प्रतिमा पूजी वैसे ही द्रौपदी ने पूजी । सूर्याभने कामदेव की पूजा नहीं की यह तो सबको मान्य है तो द्रौपदी ने कैसे कामदेव पूजे ?
इसमें डोशीजी द्रौपदी की कामदेव पूजा की सिद्धि में प्राचीन प्रमाण ढालसागर ग्रंथ का दे रहे हैं। यह अविश्वसनीय है। यह ग्रंथ प्रायः स्थानकवासी भंडारों में विपुलता से उपलब्ध होता है। हमारे देखने में जो यह ग्रंथ आया। वह भी स्थानकवासी साधु देवजीस्वामी के शिष्य दीपचंदजी स्वामी के उपदेश से लींबडी-काठियावाड़ से छपा हुआ है । उसमें विज्ञप्ति में स्पष्ट उल्लेख हैं जूदे जूदे ठेकाणेथी प्रतो मेलवी प्रसंग प्रसंगे नवी ढालो वधारी आ ग्रंथ पंडितराज पूज्य श्री ७ देवजीस्वामीना शिष्य सर्वगुणालंकृत मुनिराज श्री दीपचंदजी स्वामी आश्रय तले सुधारी आ ग्रंथ प्रसिद्ध कीधो छे.''
इससे स्पष्ट होता है कि मूल कर्ता के ग्रंथ में अपनी पाठ बदलने की नये पाठ प्रक्षेप की परंपरा के अनुसार मुनिश्री ने घालमेल करके कामदेव पूजा के पाठ का प्रक्षेप किया है। ऊपर के पाठ के रेखांकित पाठ से यह संभावना दृढ़ हो जाती है । अन्यथा उसी मूर्तिपूजकों द्वारा निर्मित ग्रंथ को छपवाने अनेक भंडारों में यत्न करने का कार्य स्थानकवासी क्यों करते ?
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