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________________ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा १२५ की चेष्टा करने पर भी चालाकी पकड़ी ही जाती है। डोशीजी का खुद का खुद में ही विरोध स्पष्ट है । आगे डोशीजी ने जेठमलजी के समकितसार का हवाला देकर ‘ओघनिर्युक्ति' की गंधहस्ति टीका में द्रौपदी को एक संतान के बाद सम्यक्त्व प्राप्ति बताई है' ऐसा बताया है, वह जेठमलजी द्वारा लगाये गप्पे को जाँचे बिना ही अपने कुतर्क की सिद्धि में पेश कीया है। ओघनिर्युक्ति की गंधहस्ति टीका नही तो देखने में आयी है न ही सुनने में आयी है । डोशीजी तो अभी नहीं है परंतु उनके कुपक्षधर - टट्टू आज भी हैं । उन्हें चेलेंज हैं कि या तो वे उस टीका को प्रस्तुत करें अथवा शास्त्रों के नाम ऐसी चोरियाँ करनी छोड देवे । 'विवाह के पूर्व द्रौपदी की मानसिक स्थिति' - में डोशीजी ने सब कल्पना के घोड़े दौड़ाये हैं। यौवन में आते विपुल सुख भोग की अभिलाषा हुई, भोग लालसा से पाँच पतियों का वरना इत्यादि अनेक बातें सूत्राशय विरुद्ध हैं- सूत्र में ऐसी बातें बतायी ही नहीं हैं। मान भी लो तो भी सत्यकी विद्याधर विपुल भोग का अभिलाषी होते हुए भी क्षयिक समकित था, उसी प्रकार द्रौपदी में सम्यग्दर्शन का विरोध नहीं है। पांच पतियों का वरण तो सूत्र में स्पष्ट बता रहे हैं, पूर्व नियाणा के कारण किया । डोशीजी उस बात को कुतर्क से सूत्राशय विरुद्ध दूसरी ओर खींच ले जा रहे हैं । आगे डोशीजी सूत्र में 'जिणपडिमा ' शब्द है उसका कदाग्रह से 'कामदेव की मूर्ति' अर्थ करना चाहते हैं । परंतु आगम शैली को देखते किसी भी आगम में कामदेव के लिए "जिन" शब्द का प्रयोग हुआ दिखाई नहीं देता है, न तो आगमों में कहीं पर भी कामदेव के मूर्ति का पाठ भी है । दूसरी बात यह है कि हमारे मान्य आगमों में जहाँ शाश्वती जिनेश्वर भगवान की प्रतिमाओं का उल्लेख है, वहाँ पर भी 'जिणपडिमा ' का पाठ है जिनकी सूर्याभदेव, विजयदेव आदि ने पूजा की है और उनके आगे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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