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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा १९. द्रौपदी और मूर्तिपूजा → समीक्षा
इसमें डोशीजी ने तीन पोईंट-"द्रौपदी श्राविका थी - उसने तीर्थंकर प्रतिमा की पूजा की थी - नमुत्थुणं से स्तुति, की थी'' का खंडन करने की कोशिश की हैं । उसमे कितनी सत्यता है वह हम देखेंगे - प्रथम पोईंट मे उन्होंने "निदान वाले जीव का जब तक निदान पूर्ण न हो तब तक सम्यक्त्व से वंचित रहता है, मंद रस निदान हो तो वह कालप्राप्ति बाद धर्मसम्मुख होता है ।" ऐसा तर्क दिया है वह उनकी मनगढंत कल्पना मात्र है, इसमें प्रमाण कुछ भी नहीं है । युक्तियुक्त तो यह है मंदरस नियाणा में सम्यक्त्व प्राप्ति हो सकती है। जैसे द्रौपदी कृष्ण वासुदेव, उनके पिता वसुदेव इत्यादि । गाढरस नियाणा में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के समान सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होता
है।
'जैन कथामाला' में उपा. श्री मधुकर मुनिजीने स्पष्ट बताया हैं कि रावण नियाणा करके आया था और दिग्विजय के पूर्व ही वह सम्यक्त्वधारी था । देखिये (पृ. ५९) "रावण ने कहा- मित्र ! आज से तुम मेरे भाई हों, क्योंकि सार्मिक भाई होता है । अब तक हम तीन भाई थे और आज तुम्हारे मिलन से चार हो गए । तुम निर्विघ्न राज्य करो । सहस्रांशु चित्त में बहुत दुःखी था । उससे अर्हन्तभक्त की आशातना हो गई थी।" पृ. (४७०) "मुनि प्रभास ने उसे देखकर निदान किया - इस तप के फलस्वरुप में मैं भी ऐसा ही समृद्धिवान् बनूँ । वह मरकर तीसरे देवलोक में देव बना
और वहा से च्यवन कर राक्षसपति दशमुख हुआ।" इसी प्रकार खुद डोशीजी भी 'तीर्थंकर चरित्र भाग २ में पृ. २९ पर - बलि के साथ रावण के युद्ध - में "उन्होंने युद्ध बंद करके रावण के पास संदेश भेजा- आप भी सम्यग्दृष्टि श्रावक हैं । व्यर्थ की हिंसा से आपको भी बचना चाहिये । यदि युद्ध आवश्यक ही है, तो आपके मेरे बीच ही युद्ध हो जाए।"
इस प्रकार स्पष्ट शब्दों में नियाणा करके आये रावण को दिग्विजय के पूर्व ही सम्यक्त्वधारी बता रहे हैं। इससे स्पष्ट होता है कुतर्क करके येनकेन प्रकारेण मूर्तिपूजा का विरोध करने की धुन में शास्त्रों के अर्थों को बदलने
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