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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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आँख को पट्टी बांधकर चूहे से डसवाया । टेस्ट किया तो कोब्रा का जहर पाया। Experiment (प्रयोग) एवं Experiena (अनुभव) से सिद्ध मूर्तिपूजा में यही प्रक्रिया है ।
गुण अरुपी है, बाह्यलिंग से व्यक्ति में गुणों की कल्पना - अनुमान से की जाती है । अत: व्यक्ति में भी व्यवहारनय से गुणों की कल्पना द्वारा ही उसे पूजनीय माना जाता है ।
छद्मस्थ के परिणाम-भाव अवस्थित नहीं रहते हैं, जब मलिन - अशुभ परिणाम है, तब प्रसन्नचंद्र की तरह आत्मा विषय- कषाय परिणति वगैरह से दुर्गतिगामी बनती है, ऐसे परिणाम जब कर्मवश आपके माने हुए सद्गुरु को आ जावे, वे छद्मस्थगम्य नहीं हैं । तब भी गुणरहित होने पर भी आप उनको पूज्य मानते ही हैं । अतः एकांत से गुण ही पूजनीय है यह बराबर नही है, जैसे अन्य भव में गई हुई गुरु की आत्मा संयमादि गुणहीन होने से आप पूजनीय नहीं मानते वैसे ही अशुभ अध्यवसाय में चढे हुए गुरु भी - पूजनीय आपके हिसाब से नहीं ठहरेंगे, परंतु आप उनको पूजनीय ही मानते है। अत: एकांत से गुण ही पूजनीय है यह नही ठहरता। अत: अनुमानकल्पना से गुण मानकर ही व्यवहार से जडशरीरधारी गुरु को ही पूजनीय माना जाता है ।
पृ. ७ → जब तीर्थंकर प्रभु का जन्म होता है, तब इन्द्रादि देवों से किये गये जन्मोत्सव से यह मालूम हो जाता है कि जिनका इन्द्रों ने जन्मोत्सव किया ऐसे तीर्थंकर प्रभु संसार का कल्याण कर इसी जन्म में मोक्ष पधारेंगे । इतना जानते हुए भी जब तक तीर्थंकर महाराज गृहस्थावस्था में रहते हैं तब तक कोई भी व्रती श्रावक या साधु उन्हें तीर्थंकर रूप से वन्दना नमस्कार तथा सेवा - भक्ति नहीं करता और जब तीर्थंकर प्रभु का निर्वाण हो जाता है तब देह - शरीर के यहाँ रहते हुए भी जैसे संसार में तीर्थंकर विरह का महान् शोक छा जाता हैं, और उनके शव को जलाकर नष्ट कर दिया जाता है। क्योंकि वंदनीय पूजनीय जो गुणी आत्मा थी, वह तो गमन कर गयी । इससे स्पष्ट है कि जैन
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