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________________ १५४ • जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा उत्तमद्रव्य-रत्नों से बनाया स्तूप ही विशिष्ट भक्ति-धर्म भावना को घोषित करता है । "स्तूप और चैत्य पहले स्मारक चिह्न थे फिर पूज्य हो गये" यह कहना प्रमाणहीन कल्पना मात्र है । आगमविरूद्ध भी है । तीर्थंकर गणधर अवशेष साधु इस प्रकार तीन स्तूप अलग अलग बनाने की क्या आवश्यकता थी सबका मिलाकर एक ही स्तुप बनाते? इसका कारण तीनों की पूज्यता में तारतम्यता हैं, भले सभी सिद्ध बने तो भी भूत पर्याय द्रव्यनिक्षेप के हिसाब से पूज्यता में भेद है । इसीलिए तीन अलग-अलग स्तूप बनाए । इससे स्तूप की पूजनीयता आगम में ही स्वतः सिद्ध हो जाती है । गुरू के आसन-वस्त्रादि पूज्य मानते हो पैर लगे तो आशातना मानते हो तो परमात्मा से ही इतना द्वेष क्यों रखते हों ? क्यों उनके स्तूप को अपूज्य मानते हों ? आगे जो चिता पर बनाये स्मारक को चैत्य कहते है इत्यादि बातें हैं, उसका समाधान आगे आएगा... परोपकार - - -- - - धोका केड Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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