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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
१५३ २८. स्तूप निर्माण का कारण → समीक्षा
इसमें डोशीजी मूल सूत्र जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में स्तूप का पाठ होने से उसे अप्रामाणिक तो कह ही नहीं सके, उससे मूर्तिपूजा की सिद्धि तो होती है अतः कदाग्रह से कहते है चैत्यों और स्तूपों से आत्मकल्याणकारी धर्म का कोई संबंध नही है।
इस पर विचार करें तो यह निस्सार वचन है ऐसा प्रतीत होता है । मूल सूत्र और डोशीजी के खुद के शब्द ही उन्हे पूजनीय घोषित करते है देखिये - डोशीजी चैत्यस्तूप निर्माण कारण बताते है “एक तो महापुरूषों की हज़ारों वर्षों तक याद रहती है, दूसरा उन माननीय पूजनीय महात्माओं की दाह भूमि पर कोई पैर आदि नही लगा सके या मलमूत्रादि न कर सके।" सुज्ञजन विचार करें जडपूजा का एकांत से विरोध-निषेध करनेवाले उसमें मिथ्यात्व मानने वाले स्थानकवासी समाज के हिसाब से प्रभु के नश्वर देह के अग्नि संस्कार पश्चात् उनकी राख, हड्डियाँ भी पूजनीय नहीं होती हैं तो उस जड़ स्थान की क्या कीमत ? उस स्थान पर कोई पैर रखे या मलमूत्र करे तो उससे क्या दोष लगना-आशातना होनी आपको मंजूर है ? अगर दोष लगनाआशातना मानो तो वह भूमि पवित्र-पूजनीय बन जाती है। उस पर बनाया गया स्तूप पवित्र-पूजनीय हो ही जाता है । आशातना-दोष नहीं है तो पैर लगना-मल-मूत्र त्यागादि से उस भूमि को बचाने की क्या आवश्यकता ?
__ आगे डोशीजी कहते हैं "चैत्य स्तूप श्रद्धावान् भक्तों की तरफ से बने हैं, यह प्रथा लाखों वर्षों से चली आ रही है" इसमें भी श्रद्धापूर्वक भक्तिपूर्वक स्तूप बनाते हैं, वह धर्म समझकर ही बनाते हैं, अधर्म-पाप समझकर नहीं बनाते यह स्वतः सिद्ध हो जाता है।
मूलसूत्र में भी स्पष्ट कहा है "सव्वरयणामए महए महालए तउ चेइय भूमे करेइ'' इससे सिद्ध हैं विशिष्ट भक्तिभाव से धर्म समझकर ही स्तूप बनाया था । अन्यथा उत्तम सर्व रत्नमय स्तूप बनाने की जरूरत नहीं थी, मिट्टी ईंट आदि का स्तूप-बनाते, पत्थर रख देते तो भी चलता।
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