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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
२९. भक्ति या अपमान → समीक्षा इसमें डोशीजी ज्ञानसुंदरजी के असभ्य-अपशब्दों का उल्लेख करते हैं इसके लिये इतना ही समझे "मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास' में जो असभ्य अपशब्दों का प्रयोग है वह सूई के समान हैं "जैनागम विरूद्ध मूर्तिपूजा" में ऐसे अपशब्दों का प्रयोग तलवार के समान है, यह तटस्थ व्यक्ति दोनों पुस्तको का अवलोकन कर निर्णय कर सकते हैं । ___ आगे ज्ञानसुंदरजी का तर्क “विशिष्ट परोपकारी पुरूष घर पर आवे तो अपनी शक्ति अनुसार कोई उसका स्वागत-पुष्पादि से सम्मान करेगा ही । तो प्रभु विषय में हिंसा की शंकाएँ क्यों?" लेकिन उसका खंडन "ऋषभदेव प्रभु आहारार्थी थें, उनके सामने हीरे, जवाहरात, हाथी, घोड़े आदि प्रतिकूल वस्तुएं धरना, राजपूत किसी जैन ब्राह्मण का मद्य-मांस से आतिथ्य कैसे करेगा ? आदि दलीले दी हैं जो निस्सार हैं सामनेवाले का उनके प्रायोग्य सत्कारादि जैसे उचित होता है, वैसे ही प्रभु प्रतिमा का स्नानादि-पुष्पादि से पूजना लोक प्रसिद्ध हैं - लोकविरूद्ध नहीं है, साक्षात् तीर्थंकर और तीर्थंकर प्रतिमा दोनों के कल्प में फर्क होता ही हैं, यह सर्वविदित है । मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में जिनप्रतिमा को जिन ही माना जाता है। प्रत्येक स्तुति, प्रत्येक क्रिया भक्ति जनित है । इसे अपमान कहना मूर्खता है । अनेक स्थानों पर स्थानकवासी साधुओं के पगले-मूर्तियों-अस्थिकुंभ के पूजनादि होते हैं वैसे साक्षात् स्थानकवासी संतों के नहीं होते हैं, यह तो आप में भी प्रसिद्ध है तो ऐसे कुतर्कों से लोगों को भ्रमित करना उचित नहीं हैं । वह अपमान नही भक्ति ही है, लोक प्रसिद्ध है ।
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