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________________ १५६ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा 30. साधुमार्गी जैन मूर्तिपूजक नहीं हैं → समीक्षा 3१. विकृति का सहारा → समीक्षा ___ इन दो प्रकरणो में ज्ञानसुंदरजी की दलीलों से बचाव करने की पूरी कोशिश की है तटस्थ व्यक्ति उसे समझ सकते हैं । मूर्तिपूजकेतर समाजों में उनके पूज्य पुरूषों की मूर्तियाँ, फोटो, समाधि, पगले आदि की स्थापनादर्शन-पूजन आदि विशाल रूप से दिखाई देता है वह विकृति नहीं परंतु प्रकृति है । चूंकि केवल साधारण - अबूझ व्यक्तियों में ही नहीं किन्तु कट्टरतावाले - चुस्त व्यक्तिओं में भी यह प्रवृत्ति अनेक स्थलों पर दिखाई देती हैं। जिस प्रकार इक्षुरस की मधुरता का कोई अपलाप करे, उससे उसमें से मधुरता जाती नही हैं, ठीक उसी तरह मूर्तिपूजा का कितना भी विरोध करने पर भी केवली भगवंतो द्वारा प्रमाणीभूत स्थापना-निक्षेप की वंदनीयतापूजनीयता कभी भी मिट नही सकती। कितना भी प्रयत्न करने पर असद् उपदेशों से मूर्तिपूजा के भावों को मिटाने की कोशिश करने पर भी हृदय में रही श्रद्धा की असलीयत प्रगट हुए बिना रहती नही हैं। सुनने मे आया हैं कि वर्तमान में ज्ञानगच्छाधिपति तपस्वी चंपालालजी म. जोधपुर में देहांत के बाद उनके जड़ शरीर की सोने के वरख से अंगरचना आदि खूब ठाठ किया उनके कट्टरपंथी भक्त उनके जड़ शरीर के दर्शनवंदन तो ठीक, परंतु अग्निसंस्कार के लिये जिन चंदन काष्टों पर उनके देह को रखा उन चंदन के काष्टों को उछल-उछल कर वंदन करते थे। जो संप्रदाय अपनी कट्टरता में विख्यात हैं, उनके कट्टर श्रावकों की भी यह स्थिति हैं, तो औरों की तो बात ही क्या ? हृदय से स्थापना निक्षेप का बहुमान प्राकृतिक रीति से प्रगट होता ही है। उसे प्रगट करना नहीं पड़ता है सर्वज्ञ परमात्माने अपने केवलज्ञान में अनादि स्वभावसिद्ध सत्य स्थापना निक्षेप, उसके बहुमान पूजन आदि से भाववृद्धि द्वारा जीवों को पुण्यबंध निर्जरादि देखे हैं । जीवों की उसके बहुमानादि की प्रवृत्ति भी स्वभावसिद्ध है वह भी देखा है। इसी कारण से जीवों की स्वाभाविक प्रवृत्ति उसमें होती है । जो शास्त्रविरोधी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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