SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४० जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा से सिंहासन चलित हुआ अवधिज्ञान द्वारा देख रहे हैं तो उनके सामने ही तो वे नमुत्थुणं करेंगे स्थापना के सामने क्यों करेंगे? यह तो छोटा बच्चा भी समझ सकता है। आगे जिसका कोई संबंध ही नहीं बैठता वैसा मूर्खतापूर्ण निष्कर्ष निकालते हैं । "मूर्तियों और उनकी पूजा से धर्म का कुछ भी संबंध नहीं है" सारे विश्व में बहुसंख्यजन मूर्तिपूजा को धर्मरूप में मान रहे हैं उससे विरूद्ध लोक-विरूद्ध शास्त्रविरूद्ध प्ररूपणा डोशीजी कर रहे हैं । उपासकदशांग आदि सूत्रों में सब उपकरणों का उल्लेख होना ही चाहिये. यह आवश्यक नहीं हैं। चरवला-पुंजणी का नाम नही हैं तो क्या वह भी नहीं थी? संक्षिप्त सत्रों में कितना बताया जाए ? अनसन में बाहर जाकर करे उसमें प्रायः स्थापना की उनको जरुरत नहीं रहती है सर्वत्याग-वोसिराते है। हजारों साल पहले के चूर्णि-टीका वगैरे में स्थापनाजी का उल्लेख है। हज़ार साल पूर्व की गुरू मूर्तियाँ साँडेराव-सेवाड़ी-ओसियाजी आदि अनेक स्थलों पर मिलती है, जिनके आगे स्थापनाजी, उसके आगे साधु-श्रावक क्रिया करते बताये हैं यही प्रबल प्रमाण अविछिन्न परंपरा में हैं। उनके हाथ में मुहपत्ती हैं, परंतु मुँह पर नहीं है। स्थानकवासी संत जो मुंह पर चौबीसों घंटा मुहपत्ति बांधते रहते हैं, वह भी अनागमिक और कुलिंग है । ___ठाणांग में स्थापना सत्य बताया है । अनुयोग द्वार मूलसूत्र में स्पष्ट शब्दों मे "कट्ठकम्मे अक्खे वराडए वा एगो वा अणेगा वा सब्भावठवणाए वा असब्भावठवणाए आवस्सए त्ति ठवणा ठविज्जति" इसमें अक्ष वराटककाष्टकर्म में एक - या अनेक की सद्भाव स्थापना (काष्ट कर्मादि में) या असद्भावस्थापना द्वारा आवश्यक की (आवश्यक करते साधु की) स्थापना करना वह स्थापना आवश्यक कहलाता है। इसमें जो अक्ष दिए हैं वह परंपरा से जिसमें स्थापना होती है वे ही समझना । यह मूर्तिपूजक जैन संघ में अति-प्रचलित हैं। इसमें गुरू आदि की असद्भाव स्थापना की जाती है, जो ऊपर सूत्र में बताया __ आगे डोशीजीने "हमें इसमें कोई आग्रह नही है जैसी जिसकी मान्यता हों करे" यह कहकर गोलमाल किया है। जिनके पास भगवान से जुड़नेवाली Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy