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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
१३९ २२. स्थापनाचार्य का मिथ्या अइंगा → समीक्षा
इसमें ज्ञानसुंदरजी ने पाठ बताया है वह योग्य ही है, टब्बाकार ने उसके अर्थ में स्पष्ट लिखा है "बे वेला मस्तक नमाडवा गुरूनी स्थापना कीजे'' यह अर्थ टब्बाकारने ही किया है ज्ञानसुंदरजी का खुद का अर्थ नही है। आगे टब्बाकार 'गुरूने पगे वंदना कीजे... बे वेला गुरूने पगे मस्तक नमाइए" इसमें भी गुरू पगे का अर्थ गुरू स्थापना लेना है क्योंकि ऊपर स्पष्ट दो बार मस्तक नमाने के लिये गुरू स्थापना का कहा है । इस टब्बाकार के भाव को छिपाकर डोशीजी टब्बाकार के आशय विरूद्ध अर्थ कर के, भोले लोगों को फसाते हैं । अंत मे टब्बाकार ने स्पष्ट शब्दों में 'एह समवायांगवृत्तिनो भाव' कह करके भगवान महावीर से, प्राचीन परंपरा से, जो क्रियाविधि आती है उसे ही टीका के भाव स्वरूप में बताया है। अगर टब्बा में बताये मुजब भाव न माने तो अनेक आपत्तियां आती है, सब (अनेक) साधु साथ में मांडली में प्रतिक्रमण करते, तब गुरू के पैरों में वांदणा एक ही साधु दे सकता हैं, दूसरे साधु क्या करे ? क्रमशः वांदणा देवे तो सैंकड़ों साधु की भगवान के वक्त संख्या थी तब क्या करे ? पूरे दिन वांदणा आवश्यक ही पूरा न हो सकेगा ? श्रावक घर में प्रतिक्रमण में क्या करेंगे ? इसलिये टब्बाकार का भाव उचित ही है। .
आगे डोशीजी अप्रस्तुत चरितानुवाद के उदाहरण देकर कुतर्क कर रहे हैं । खुद ही पीछे (२१) वे प्रकरण में चरितानुवाद का निषेध करते हैं, यहां पर खुद ही उसी का सहारा लेते हैं, है न; कथनी करणी में विरोध ? उनके कुतर्क पर भी हम विचार करेंगे । पहले उदाहरण में 'जन्म आदि कल्याण' न लिखकर 'केवल आदि कल्याण' लिखते हैं, यद्यपि मूलसूत्र जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति इत्यादि में जन्म कल्याणक में भी नमुत्थुणं विधि बतायी हैं परंतु स्थानकवासियों के हृदय में वह सूची की तरह चुभती हैं क्योंकि उस वक्त तीर्थंकर का द्रव्य निक्षेप है उसे वे पूज्य नहीं मानते भाव निक्षेप को ही पूज्य मानते हैं । इसलिये डोशीजी ने यह कपट किया है।
इंद्र को स्थापनाचार्य की आवश्यकता ही क्या है ? जिनके कल्याणक
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