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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा कोई परंपरा ही नहीं है, नहीं कोई शास्त्रविधान, उसे अपनी-अपनी बुद्धि से भिन्न-भिन्न विभागों में बांटकर अपने कल्पित मत में कल्पित होने से ही एकवाक्यता नही है उसका विश्व को पता कराते हैं । क्रिया-आदेश आदि गुरू के समक्ष होने चाहिये उनको भगवान के पास मांग रहे हैं । उसमें भी कोई सीमंधर स्वामी के पास, कोई अन्य किसी के पास, मर्जी मुताबिक मांगने का कह रहे हैं । बेबुनियाद और अनागमिक पंथ का तमाशा देखिए । आगे डोशीजी अनभिमत दोषों का आरोपण कर रहे हैं, उसके उत्तर में मालूम हो कि मूर्तिपूजक मूर्ति स्थापना आदि में गुणों की ही कल्पना करते हैं। केवल जड़ मूर्तियाँ स्थापना मानकर उपासना करते ही नहीं है किन्तु इसमें साक्षात् जिन भगवान मानते हैं । साकार से निराकार की साधना करते हैं । आपको दोनों की (आकृति और गुणो की) कल्पना करनी पडती हैं, हमको केवल गुणों की ही कल्पना करनी पडती हैं । जो जिनमूर्ति में आस्था नहीं रखते उन्हें जिनमूर्ति से कोई भी शुभ भाव आने की शक्यता ही नहीं है । भारतीय राष्ट्रध्वज है तो निर्जीव-कपड़े का टुकडा, फिर भी राष्ट्रप्रेमी भारतीय को उसे देखकर खुशी होगी । कोई पाकिस्तानी को नहीं । इसी प्रकार द्वेषीअज्ञानी को जिनमंदिर-जिनमूर्ति को देखकर शुभभाव होगा ही नहीं ।
विधायरीन
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