SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४२ 'जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा 23. व्यवहारसूत्र का समभावित चैत्य → समीक्षा ____ इस प्रकरण में डोशीजी एकदम निम्नस्तर पर पहुंचे हैं । ज्ञानसुंदरजी को तो अनेक स्थलों पर भांडे हैं, उत्सूत्र प्ररूपक इत्यादि मिथ्या आरोप भी लगाये हैं । परंतु अत्यन्त-भवभीरू कहीं पर उत्सूत्र प्ररूपणा हो न जावे उसका डर जिनके रोम-रोम में है, टीका के अवलोकन से ज्ञात होता हैं पूर्वटीका के आधारपर खुद ने रचना की हैं, पूर्व अविच्छिन्न गुरूपरंपरा जिनको प्राप्त हैं ऐसे महान् टीकाकार महापुरूष के लिये भी उत्सूत्र प्ररूपणा का आरोप लगाते तिलमात्र भी हिचकिचाते नहीं । महाभिनिवेश युक्त इस व्यक्ति को जगह-जगह पर खुद की उत्सूत्र प्ररूपणा का तो भान भी नहीं है । महामिथ्यात्व में फंसे व्यक्ति को उसका भान न होवे उसमें आश्चर्य ही क्या है ? इतना ध्यान रहे टीकाकार ने टीका अपनी बुद्धि से ही नहीं बनायी हैं, पूर्व टीका, चूर्णि आदि के आधार से ही चले हैं । पूर्व टीकाकारने अपनी परमात्मा से चली आती परंपरा के आधार पर ही टीका आदि रची है तो उत्सूत्र प्ररूपक टीकाकार या डोशीजी? पाठक विचार करें । आगे जैसे अभव्य भारेकर्मी जीवों को साक्षात् परमात्मा से द्वेष होता है वैसे ही भारेकर्मी डोशीजी के दिल में ठूस-ठूसकर जो जिनप्रतिमा के प्रति द्वेष भरा हुआ है वह विषोद्गार रूप से बहार निकल रहा है उसके जवाब पूर्व में दे दिये हैं । चूर्णि-टीका आदि नियुक्ति-मूलसूत्र के भाव को खोलते हैं । वह पूर्व टीका-परंपरादि के आधार पर ही बनाते हैं । जिनके पास प्राचीन परंपरा का बिंदु तक नही हैं, जो सम्मूर्छिम जैसे टपक पड़े हैं ऐसे स्थानकवासी संत खुद की कल्पना से मूलसूत्र के अर्थभाव को बतावे उसे सुज्ञ-तटस्थ बुद्धिशाली व्यक्ति प्रमाण मान ही नहीं सकता मूल सूत्र-नियुक्ति में संक्षेप में बहुत कुछ बताते हैं । उसका भाव चूणि टीका के बिना पकड़ ही नहीं सकते । स्थानकवासियों ने भी उसके आधार पर ही अर्थ-अनुवाद किये हैं। मूर्ति की बात आने पर खुद अर्थ बदलकर टीका आदि पर झूठा कलंक लगाते हैं जैसे कोई कुपुत्र अपने ही पिता का विरोध-निंदा करे देखियें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy