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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
वृत्ति प्रमुख जोई करी भाषे आगम आप । तेहज मूढा ओलवे, जेम कुपुत्र निज बाप ॥४॥१६५।।
सीमंधर स्वामी स्तवन ३५० गाथा (कर्ता-सरस्वतीवरप्राप्त महोपाध्याय प पू. यशोविजयजी म.सा.)
दूसरी बात सम्मभावित चैत्य के अभाव में पूर्व अथवा उत्तर दिशा सन्मुख आलोचना करना स्पष्ट बताया है । जिसमें कोई भी आलंबन नहीं फिर भी पूर्व-उत्तर दिशा सन्मुख आलोचना करना क्यों बताया? वे दिशाए पूज्य-पवित्र गिनी जाती हैं यही कारण मालूम पड़ता है। अगर पवित्रता के कारण किसी भी आलंबन बिना उन दिशा सन्मुख आलोचना करना सूत्रकारों को इष्ट है तो परमपवित्र जिनप्रतिमा के सन्मुख आलोचना करना सूत्र नियुक्तिकार को अनभिमत होगा क्या? कदापि नहीं । अतः टीकाकारश्रीने पूर्ववर्ती-चूर्णि-टीकादि के आधार पर सूत्र और नियुक्ति के भावों का ही उद्घाटन किया है।
डोशीजी की मायाचारीता देखिये जहाँ सूत्रकार पूर्व अथवा उत्तर दिशा बता रहे हैं वहा डोशीजी ईशान दिशा बता रहे हैं । सूत्रकारों ने बिना ही आलंबन आलोचना लेना बताया है, जो इनको आपत्तिस्वरूप है । अतः जानबूझकर सूत्र के अर्थ का परिवर्तन करके ईशान दिशा (सीमंधर स्वामी) बता रहे हैं । यह चालकी पाठक खुद समझ सकेंगे। उत्सूत्र प्ररूपणा टीकाकार करते है या डोशीजी उसका निर्णय भी करेंगे।
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