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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
२४. पट्टावली के नाम से प्रपंच → समीक्षा
वस्तुतः पट्टावली ही अप्रामाणिक कपोलकल्पित है। उसमें कोई प्रमाण ही नही है । उसी कारण से उसमें परस्पर विरोधी बाते दिखायी देती हैं । देखिये पहले पट्टावली की बातों का विरोध - मणिलालजी लिख रहे हैं “वली सिद्धांतोमां पण स्थापना निक्षेप कहेल छे, तो श्री जिनेश्वर देवनी प्रतिमाने स्थापना करवामा कोई जातनो प्रतिबंध नडतो नथी." इस वाक्य को स्थानकवासी समाज खुद डोशीजी प्रमाण मानेंगे ? कदापि नहीं मान सकते, उनमें मूर्तिद्वेष पूर्णरुप से भरा हुआ है । आगे मणिलालजी लिखते हैं "सुविहित आचार्योए श्री जिनेश्वर देवनी प्रतिमार्नु अवलम्बन बताव्यु..." यहाँ पर विचार कीजिएसुविहित का मतलब आपके हिसाब से तो स्थानकवासी साधु-आचार्य ही होगा तो क्या लोकाशाह पूर्व उनकी सत्ता थी? अगर थी तो लोकाशाह को क्रांति की क्या जरूरत पड़ी ? क्या वे आचार्य क्रांति में असमर्थ थे ? अगर आपके हिसाब से उनके अप्रामाणिक अस्तित्व को माना जाए तो भी प्रश्न रहता है क्या सुविहित (स्थानकवासी) आचार्यों ने जिनप्रतिमाओं की स्थापना-उनकी प्रतिष्ठा की ? यह बात न तो आपको मान्य है नहीं हमे मान्य । इससे और ऐसी ही दूसरी बातें भी इसमें है जिससे सिद्ध होता है मणिलालजी की प्रभुवीर पट्टावली प्रमाणहीन-कपोल कल्पित है ।
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