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________________ १४५ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा २५. स्वर्णगुलिका → समीक्षा इसमें डोशीजी को कोई व्यवस्थित कुतर्क नहीं मिलने पर आतंकवादी के समान बनकर अतिस्पष्ट खुल्लम-खुला ऋषिजी की तस्कर वृत्ति को ज्ञानसुंदरजी पर अपशब्दों का कीचड़ उडाकर ढकना चाहा है। परंतु मध्यस्थ व्यक्ति से यह छुपा नहीं रह सकता । जिस किसी टीका का सहारा लेकर अमोलकऋषिजी कथानक बता रहे हैं उसमें आयी मति की बात को उडा देना तस्करवृत्ति नहीं तो क्या ? आपने पीछे के प्रकरण में प्रभुवीर पट्टावली के बारे में आक्रोश किया वह ऋषिजी और उनके समर्थक आपको लागू नही होता है ? सभी जगह अन्य कुयुक्ति नहीं मिलने पर मूल के अर्थ से विपरीत की डींग लगानेवाले आप और आपके माने पूर्वज मूल में सुवर्णगुलिका का वृत्तांत बता सकेंगे ? जो नहीं, तो जिनके पास प्रामाणिक परंपरा हैं ऐसे भवभीरू टीकाकारों के दृष्टांत को मानना और मूर्ति की बाते आए उसे छुपाना, बदल देना-निंदा करना इसमें सज्जनता नहीं है । आप ही के आचार्य जवाहरलालजी कहते हैं "चूर्णि की आधी बात मानना, आधी न मानना यह दुराग्रह के सिवाय कुछ नही'' इस आपके पूर्वजों के उपदेश को गले उतारा होता तो चोरी का पक्षपात करके ऐसे अपशब्द ज्ञानसुंदरजी के प्रति नहीं निकलते । नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका का आधार लेना उनकी प्रायः सभी बातें मानना केवल मूर्तिसंबंधी बात आए उसको न मानना यह मत दुराग्रह के सिवाय क्या हैं ? मध्यस्थ जन समझ सकते हैं । सूत्र में भी मूर्ति की बात आये तो अर्थों को बदलना, तोड़-मरोड़कर मनमाने अर्थ करना, पाठों को बदलना, निकालना यह सब कुमताग्रहवाले जिसे परभव का डर नहीं वे ही कर सकते हैं । (इन बातों के प्रमाण के लिये देखिये - "उन्मार्ग छोड़िये सन्मार्ग भजिये", कपूरचंद जैन-हिण्डौनसिटी, लोंकागच्छ और स्थानकवासी पृ. ६५ जैन आगमों में कांट छांट) और इतना करने पर भी 'चोर कोतवाल को डांटे' कहावतानुसार गलत आक्षेप पूर्व महापुरूषों पर लगाकर अपनी चोरी उन पर थोपना महासंसार भ्रमण का कारण है । पीछे २४वें व्यवहार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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