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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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या गुरु की कुछ भी भक्ति करेगा उसमे अनिच्छा होने पर भी हिंसा हो ही जाती है, जैसे- गुरु को वोहराना, गुरु की फोटो बनवाना, गुरु को बस
के द्वारा वंदन करने जाना
इत्यादि.
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"सम्यक्त्व शल्योद्धार" में विजयानंदसूरिजी ने हिंसा को जीवदया का जामा नही पहनाया हैं परंतु सत्य बात बताई है । अति स्पष्ट है की वेश्या शय्या में फूल बिछावें, व्यसनी गजरे हार बनावे, धनी स्त्रियों के सिर गूंथे जाटा, इत्र में विडंबना हिंसा हो, इन सबकी अपेक्षा प्रभु प्रतिमा के ऊपर उसको अभयदान ही मिलता है, भक्ति भी होती है । डोशीजी माली से फूल खरीद करवा कर अधिक हिंसा बता रहे हैं, उस कुतर्क का उत्तर इस प्रकार लिखते है – ‘“माली का धंधा अधिक चलेगा वो अधिक फूल पैदा करेगा "
आप
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यह बात बराबर नही है फूलो के पौंधो से भरे बगीचे में अधिक पौधे कैसे बो सकता है ? और फूल कृत्रिम पेदाइश नहीं है जिससे अधिक पैदा कर सके? माली के खुद के बगीचे में जितने फूल आते हैं उतने ही आएँगे । माली की ताकत नही है, वह ज्यादा फूल पैदा करे, फूलों का उगना माली के हाथ की बात नहीं है । उसके पुण्य के हिसाब से ही उसे फूलों की प्राप्ति होगी ।
रक्षक सो भक्षक, कहावत तो डोशीजी को ही लागू होती है मूर्ति पर फूलों की रक्षा के बदले मूर्तिपूजा का विरोध कर उन बेचारे फूलों का भोग में विनाश एक गति ही रहेगी जो दोष डोशीजी को लगेगा ।
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पृ. ९० पर पत्रबेल, रचना, कदलीघरादि महापूजा इत्यादि बताएँ हैं ये सब भक्ति के प्रकार हैं । कूपदृष्टांत से जयणापूर्वक करते भी जो हिंसा होती हैं उसका शोधन भक्ति भाव से प्रगट विशिष्ट भावनादि के पुण्य से हो जाता है । जैसे चातुर्मास में वाहनों में बैठकर गुरुवंदनार्थ जाते स्थानकवासी भाईयों के मन में 'पाप कर रहा हूं' ऐसे भाव नहीं होते है, न उनको गुरू रोकते हैं क्योंकि जो हिंसा हुई उसकी अपेक्षा गुरूवंदन-प्रवचनश्रवण आदि से विशेष लाभ होना आप मानते है, बस, यह प्रकार प्रभु भक्ति में समझना ।
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