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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री का है उसमें "जल और स्थल में खिलने वाले पांच वर्णों के फूल'' ऐसा स्पष्ट लिखा हैं, वहाँ पर अचित्त शब्द का प्रयोग नहीं किया है ।
" समवसरण के फूलों की सचित्तता के विषय में तो स्वयं मूर्तिपूजक विद्वान् ही अभी तक एक मत नहीं हैं" यह डोशीजी की बात सत्य से परे है । मूर्तिपूजक सभी सचित्त मानते ही । प्रवचन सारोद्धार की बात अधूरी और गलतरीति से डोशीजी ने पेश की है। प्रवचन सारोद्धार में कोई मत बताया नही है किंतु केवल शंका और उसके अलग-अलग समाधान देकर अंत में सकलगीतार्थसम्मत उत्तर दिया है । डोशीजीने जानबूझकर इसका उल्लेख नहीं किया है । प्रवचन सारोद्धार में वहाँ पर कहा है " समवसरण में सचित्त पुष्प होने पर भी तीर्थंकर के अचिन्त्य प्रभाव से पुष्प के जीवों को कोई पीड़ा नही हो पाती है, परंतु मानो अमृतरसका सिंचन हो रहा हो ऐसा आनंद उनको होता है ।" सेन प्रश्न में सचित्त-अचित्त दोनों प्रकार के पुष्प माने हैं तो उसमें सचित्त तो बताए ही हैं। अमुक पुष्पजीवों का आयुष्य पूर्ण होने से अचित्त भी हो सकते हैं । वैसे शास्त्र में 'बिटम्मि मिलाणम्मि' वगैरह अचित्त फूल के लक्षण बतायें हैं । ऐसे अचित्त पुष्प भी शामिल हो सकते हैं । अत: उस अपेक्षा से सचित्त - अचित्त दो प्रकार के फूल बताये हैं, वे सभी सम्मिलित ही होते हैं ।
समवसरण में बरसाए जाने वाले फूल सचित्त ही थे फिर भी एक
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बार मान लिया जाए - तुष्यतु दुर्जन न्याय से कि - भगवान के समवसरण में जो फूल देवों द्वारा बरसाए जाते थे, वे अचित्त थे । फिर भी - फूलों का आकाश से गिरने से वायु के जीवों की विराधना हुई या नहीं ? इसे भगवान ने क्यों बंद नहीं करवाया ? इसी प्रकार चंवर ( चामर) दुलाने पर भी वायुकाय जीवों की हिंसा हुई या नहीं ? यदि हिंसा हुई तो फिर भगवान ने क्यों नहीं रुकवाया ?
सत्य यह है कि- भगवान स्वयं जानते हैं कि ये तीर्थंकर की भक्ति का विषय है, इसमें भक्तिभाव - शुभभाव ही महत्वपूर्ण है । और भक्त देव
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