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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
११. पूयणवत्तियं → समीक्षा इसमें अर्थ में ज्ञानसुंदरजी की स्खलना हुई हो ऐसा लगता है। परंतु, विजयानंदसूरिजी ने सम्यक्त्व शल्योद्धार पृ. १०३ में जो लिखा है वह बिलकुल सही है। भाव तीर्थंकर की उचित भक्ति होती है, स्थापना तीर्थंकर की सत्रह प्रकार पूजा आदि होती है ।
समवसरण में पुष्पवृष्टि को डोशीजी जो अचित्त सिद्ध करने की कोशिश कर रहे है वह केवल मताग्रह है, इसलिए सूत्रों के अर्थों को पलटने की चेष्टा कर रहे है । रायपसेणी सूत्र में जलज-स्थलज शब्द हैं उनको उपमा वाचक किस आधार से कहते है ? पुरिससीहाणं आदि पदो में उपमानोत्तरपद कर्मधारय समास है जिससे स्पष्ट ही है वे उपमाएँ हैं । जलज-स्थलज में तत्पुरूष समास हैं ये शब्द उपमा वाचक कैसे बन सकते हैं ? "पुप्फवद्दलए" सूत्र में शब्द हैं उसका अर्थ टीका में पुष्पवृष्टियोग्यानिवार्दलकानि = पुष्पवृष्टि योग्य बादल-इसका अर्थ होता हैं - पुष्पों की वृष्टि कर सके ऐसे बादलों की विकुर्वणा की पुष्प तो जलज-स्थलज सचित्त औदारिक ही थें । पुष्पों की विकुवर्णा की ऐसा मान भी लो तो भी जलज-स्थलज शब्द बता रहे हैं सचित्त पुष्पों की विकुवर्णा की । देव अपनी शक्ति से सचित्त बना सकते हैं जैसे श्रेणिक महाराज को सर्व-ऋतु में फल लगे, ऐसा बगीचा बनाकर दिया था ।
जीवाभिगम-३, प्रति-२, उद्देश सू. २१७ में - "एगत्तं विउव्वेमाणे एगिदियरूवं वा जाव पंचिंदियरुवं वा, पुहुत्तं विउव्वेमाणे, एगिदियरुवाणि वा जाव पंचिदियरुवाणि वा" पाठ से भी सचित्त पुष्पों की विकुर्वणा सिद्ध
समवायांग-३४, समवाय में-"जलथलयभासुर पभूतेणं बिटट्ठाइणा दसद्धवन्नेणं कुसुमेणं जाणुस्सेहधमाणमित्ते पुष्फोवयारे किज्जइ ।" स्पष्ट पाठ है यहाँ पर विकुर्वणा की बात नहीं है और सचित्त फूल ही बताए हैं । समवायांग भाषांतर युवाचार्य मिश्रीमलजी म.एवं कन्हैयालालजी (कमल)
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