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________________ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा खुद टीकाकार भी " अरिहंतचेईयजणवयविसण्णिविट्ठ बहुल" इस अन्य प्रति में प्राप्त पाठ को प्रमाण गिनते हुए आज से १००० वर्ष पूर्व इसकी व्याख्या करते हैं, जब स्थानकवासी मत निकला ही नहीं था, मूर्ति का विरोध ही नहीं था । ९६ टीकाकार आगे दूसरा भी पाठांतर देते हैं 'सुयागचित्तचेईय-जूयसंणिविट्ठ बहुल" उसका भी अर्थ करते हैं, उससे डोशीजी को कोई संबंध नहीं है उसमें मूर्तिपूजा की बात नहीं इसलिए उसकी स्पर्शना नही की है, परंतु उसको देखने से स्पष्ट होता है निष्पक्ष रीति से जो जो पाठ १००० साल पटले टीकाकारों को मिले उन पर उन्होंने टीका की है। ऐसे अनेकानेक पाठ टीका में हैं, जिनका मूर्तिपूजा से कोई संबंध नहीं, उनकी भी टीका टीकाकारों ने की हैं। उससे स्पष्ट होता है कि कोई भी अलग आशय से पाठों में पूर्वकाल में घालमेल नहीं करते थे, जैसे वर्तमान में स्थानकवासी संतो ने आगमों में की है । दर्शनविजयजी ने कोई आगम छपवाकर उसके पाठ में फेरफार किया ही नही है । ऐसे भी "अरिहंतचेइय" वाले पाठ में युवती शब्द है ही नहीं, जो टीका से स्पष्ट है । अतः दर्शनविजयजी पर कलंक लगाना सज्जन का काम नही है । अमोलक ऋषिजीने अमृतचंद्रसूरि के टब्बे के आधार पर टब्बा लिखा और मूर्ति की बात को टीप्पण में डाली उसके लिए ज्ञानसुंदरजी का उल्लेख उचित ही है । जिसका आधार लेते है उससे अपनी मान्यता को बाधा पहुंचने पर पाठ को निकालना, स्थानांतर करना सज्जनता नहीं कहलाती है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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