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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा ११. चंपानवारी और अरिहंत चैत्य → समीक्षा
इसमें डोशीजी पाठांतर शब्द के सही अर्थ से खुद अज्ञान हैं अथवा भोले लोगों को जानबूझकर भ्रम में डाल रहे है । 'अन्यः पाठः पाठान्तरम्' यह पाठांतर का अर्थ व्याकरण के जानकार सुज्ञ लोग अच्छी तरह से जानते हैं । डोशीजी इसका अर्थ जनमानस पर, 'प्रक्षिप्त किया हुआ घालमेल किया हुआ पाठ' ऐसा थोपना चाहते है वह बराबर नहीं है । पाठांतर के बारे में पूर्व में हमने बताया ही है। स्थानकवासी पंथ के जन्म के पर्व की बहुत सारी हस्तप्रतियों में अलग-अलग पाठ मिलते हैं, टीकाकारों के सामने भी ऐसे अनेक पाठ थे, टीकाकारों ने भी पाठांतरो की टीका की हुई है, इससे सिद्ध है मूर्तिविषयक पाठों का किसीने घालमेल नही किया है । स्थानकवासी मत की उत्पत्ति ही नहीं थी, तो ऐसे पाठों को कोई जोड़े ही क्यों ? यह तो "चोर कोतवाल को डंडे' जैसी बात है अनेक स्थलों पर स्थानकवासी संतोने पाठ निकाल दिए - बदल दिए (देखिये - 'मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास', 'लौं कागछ और स्थानकवासी', 'उन्मार्ग छोड़िए, सन्मार्ग भजिए') उसका आरोप मूर्तिपूजकों पर थोप रहे है ।
. कदाग्रह से डोशीजी चैत्य का अर्थ नाट्यभूमि-टाउन हॉल इत्यादि कर रहे है जो अप्रमाणिक अर्थ है ।
चंपानगरी का वर्णन सूत्रकार कर रहे है उसमें यह जरूरी नहीं की पूर्वपद का उत्तर पद के साथ संबंध होना ही चाहिये ।
“आचारवंत चेइयजुवइविविहसंनिविट्ठबहुल" इसमें लाघव से बहुल शब्द का दो बार उपयोग न हो इसलिए सामासिक एक पद दिया है। चैत्य भी अनेक हैं, पण्यतरुणीयों के सन्निवेश भी अनेक हैं यह भाव है, इसमें चैत्य का संबंध पण्यतरुणीयों के साथ जोडना छलना है। अगर सभी जगह संबंध ही हो तो पहले दिए "गोमहिस-गवेलगप्पभूती का चैत्य अथवा पण्यतरुणी के साथ क्या संबंध?
पाठांतर भी पाठ ही है। यह मध्यस्थ मनीषी समझ सकते हैं इसलिये
१. इसके लिये देखिये (२०) द्रौपदी और मूर्तिपूजा-समीक्षा में उदंगसुत्ताणि खंडी सम्पादकीय का पाठ ।
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