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. जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा भी उन्हें छुपाना और आगमों में मूर्तिपूजा का विरोध न होते हुए भी वहाँ पर विरोध बताना, इस चोर कोटवाल को डांटे वाली नीति का धर्म में उपयोग करने का मन महामिथ्यात्व से ही होता है ।
प्रारम्भ में ही पथभ्रष्ट → समीक्षा पथभ्रष्ट कौन है बराबर टटोल कर देखिये.....
पृ. १७ → (१) सुन्दर मित्र ने जिस मूर्त द्रव्य को अनादि बताया है यह वही इस पुस्तक के प्रारम्भ में प्रशंसित हुआ "पुद्गल" द्रव्य है । यदि पुद्गल पूजा में ही धर्म है तब तो संसारी जीव पुद्गल पूजक ही है। धन, धान्य, कुटुम्ब, परिवार, आदि पुद्गल की उपासना सभी करते हैं । इसलिए सुन्दर हिसाब से तो सभी धर्मी होंगे ? और जो महात्मा (सर्वज्ञ से लेकर साधु पर्यंत ) तथा आगम शास्त्र पुद्गल से विमुख होने का उपदेश करते हैं, वे अधर्मी तथा अधर्म प्रचारक ठहरेंगे ।
समीक्षा → यहाँ पर मूर्ति की पूजनीयता की बात चल रही है, वहाँ संपूर्ण पुद्गल द्रव्य को पूजनीयता की आपत्ति देना द्वेषपूर्ण अज्ञानता है । दीक्षा के समय रजोहरण-मुँहपत्ती देते है वह पूज्य है वह पौद्गलिक है अतः समग्र पुद्गल द्रव्य के पूज्य होने की आपत्ति बुद्धिशाली (?) ही देगा । दशवैकालिक में गुरु के आसन को पूज्य बताया है । वह पुद्गल है अत: समग्र पुद्गल द्रव्य की पूज्यता मानेंगे? जरा सोचिये पथभ्रष्ट कौन है ? ज्ञानसुंदरजीने तो मूर्तद्रव्य के अनादिपने में मूर्तिपूजा के अनादिपने को सिद्ध किया है । मूर्तमात्र की पूजा नहीं। उनके नाम पर उसे थोपना कदाग्रह है। __शरीर भी तो पुद्गल है, स्थानकवासी संतो की मृत्यु पर पुद्गल के लिए इतनी धूमधाम क्यों करते हो ?
फोटो-लोकेट-नवकारमंत्र छपा कार्ड आदि भी पुद्गल है, स्थानकवासी संत आदि उन्हें क्यों छपवाते-बटवाते हैं ? इसका उत्तर देवें ।
(२) पुद्गल के अनादि होने से मूर्तिपूजा भी अनादि मान ली जाय तो फिर सुंदरजी को क्या अधिकार है कि वे जैनियों की मूर्ति
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