________________
जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
६५ वीतराग प्रभुने आज्ञा दी है क्या? ऐसे प्रश्न का उत्तर प्रश्नकार को या तो मौन से मिलेगा या क्रोध से ? अगर उत्तरदाता ने कुतर्को का रास्ता पकड लिया तो वह इतनी बड़ी-बड़ी छलांगे मारेगा कि जिससे सत्यरुपी सुंदर मार्ग से हटकर मिथ्यारूपी गहरी खाड़ी में जा गिरेगा ।
समीक्षा → पृ. १५ पर डोशीजी कहते है "मूर्तिपूजा मे धर्म मानने की श्रद्धा का किसी भी सूत्र में किसी भी तरह उल्लेख नहीं है । बिलकुल नहीं है, बिंदु विसर्ग तक नहीं है ।.... मैं संक्षिप्तमें दृढतापूर्वक कह सकता हूँ कि- जिनागमों में मूर्तिपूजा करने की किसी भी जगह आज्ञा नहीं है..."
इन डोशीजी की बातों में कुछ तथ्य होता-सत्यता होती तो उनको अपना 'जैनागम विरुद्ध मूर्तिपूजा' पोथा लिखने की आवश्यकता ही नही थी। उस किताब में उन्होंने अनेक मूर्ति-मूर्तिपूजा के आगम पाठों को कुतर्को द्वारा अर्थ पलटकर भोले लोगों को भ्रमित करने का प्रयत्न किया है, जिसे तटस्थ व्यक्ति प्रस्तुत पुस्तक को डोशीजी की पुस्तक से मिलान करके पढ़ने से समझ सकते हैं । आगे डोशीजी लीखते है "आचार धर्म की विधि बतलानेवाले सूत्र भरे पडे है... एक भी जगह मूर्ति या मंदिर बनवाने आज्ञा दी है ? तीर्थयात्रा जाने की आज्ञा दी है क्या ?" जिसने दृष्टिराग के काले चश्मे पहने है उसे तो कहीं पर यह दिखेगा नहीं ! सम्यग्दृष्टि को अनेक सूत्रों में मूर्ति की बाते, रायपसेणी-ज्ञातासूत्रादि में मूर्तिपूजा की बात, भगवती-समवायांग आदि में चारणऋषिओं के तीर्थयात्रादि की बातें स्पष्ट दिखाई देती ही हैं।
डोशीजी की चोर कोतवाल को डांटे वाली नीति देखिये - खुद के पुस्तक का जैनागम विरुद्ध मूर्तिपूजा नाम दिया है। पूरे पुस्तक में आगम में अरिहंत प्रतिमा पूजन के निषेध का, उसमें मिथ्यात्वादि दोष बतानेवाला एक भी पाठ दे नही सके । जब मूल में ही यह वस्तु नहीं है तो डोशीजी लावे कहा से ? हा, व्यर्थ के कुतर्क करके भद्रजनता को भ्रम में अवश्य डाल सकते हैं।
करीब-करीब सभी आगमो में मूर्ति-मूर्तिपूजा संबंधित पाठ होते हुए
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org