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________________ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा ६४ यही नीति धर्ममार्ग मे भी अपनानी चाहिये । इसीलिए 'जयंचरे...' इत्यादि पाठ समझना । इसी न्याय को शास्त्रकारों ने मूर्तिपूजा में लगाया है और 'कूपदृष्टांत विशदीकरण' जैसे प्रकरण ग्रंथ भी लिखे गये है जिनका मध्यस्थता पूर्वक जो कोई अध्ययन करेगा, उसके सभी भ्रम अवश्य मिट जाएँगे । पृ. १५ हमारे कितने ही मूर्ति पूजक बन्धु मूर्ति-पूजा को जिनाज्ञा के अनुसार कहते हैं और इसके लिए आगम प्रमाण की दुहाई देते हैं । श्रीमान् ज्ञानसुंदरजी ने भी अपने "मूर्ति पूजा के प्राचीन इतिहास" नामक पुस्तक में ऐसा प्रयत्न किया है, किन्तु यह एक भ्रमजाल ही है । श्रीमान सुंदरजी ने अपने सारे पोथे में एक भी प्रमाण ऐसा नही दिया जो मूर्तिपूजा में धार्मिक श्रद्धा को पुष्ट करे । हाथ कंगन को आरसी क्यां ? पाठक स्वयं उस पुस्तक से निर्णय कर सकते हैं, सुंदरजी ने इस विषय में जहाँ-जहाँ शास्त्रों के नाम से भ्रम फैलाया है, उस पर विचार हम इसी ग्रंथ में कर रहे है, किन्तु मैं संक्षिप्त मे दृढ़ता पूर्वक कह सकता हूं कि "जिनागमो में मूर्ति-पूजा करने की किसी भी जगह आज्ञा नहीं है, न सुन्दरजी भी ऐसा सिद्ध कर सके हैं।" जब मूल में ही यह वस्तु नहीं है तो फिर सुंदर मित्र लावें कहाँ से ? हाँ व्यर्थ के कुतर्क खडे करके भद्र जनता को वे भ्रम मे अवश्य डाल सकते है । एक साधारण पढ़ा लिखा और समझदार मनुष्य मूर्ति-पूजक विद्वान से यह प्रश्न करले कि- महानुभाव । जरा यह तो बतलाइये कि जहां आचार धर्म की विधि बतलाने वाले सूत्र भरे पड़े हैं। जिनमे छोटी छोटी बातों के लिए स्पष्टता पूर्वक आज्ञा दी गई है, उनमें किसी एक भी जगह मूर्ति या मन्दिर बनवाने अथवा दर्शन, पूजन, करने की आज्ञा दी है ? साधु साध्वियों के समूह के साथ संघ निकालकर आरम्भ समारम्भ करते हुए तीर्थ यात्रा जाने और इस प्रकार मौज उड़ाने की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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