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________________ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा ६३ तीर्थंकर एवं अन्य धर्मगुरुओं के औदारिक शरीर स्वभाव से ज्यादा काल टिकते नही, दुर्गंध हो जाती है अत: उनकी मूर्तियों का प्रचलन अनादिकाल से था और आज भी है । भगवान के निर्वाण स्थान पर स्तूप बनाते हैं क्यों ? अगर कहो, आशातना निवारण हेतु तो आपके हिसाब से जड़ स्थान का क्या प्रभाव ? उसकी आशातना करें उसमें क्या दोष ? जैसे स्थानकवासी प्रभु प्रतिमाओं की आशातना में दोष नही मानते हैं, स्थान में भी क्या दोष ? तो वहाँ पर स्तूप क्यों ? । धर्ममार्ग (पृ. १० से १६) → समीक्षा → इसमें डोशीजीने आगमपाठों का केवल शाब्दिक अर्थ किया है। आगम के तात्पर्यार्थ को पकड़े बिना आगम के अर्थ कहने से उत्सूत्र प्ररूपणा होती है। दूसरे आगमों के साथ विरोध भी आएगा जैसे यहाँ पर आचारांग के पाठ का भगवतीजी और दशवैकालिक के पाठ से विरोध आएगा इस प्रकार-आगम वगैरह पाठों का केवल शाब्दिक अर्थ करना. और उससे भोले लोगों को भटकाना महापाप है । आगमों को पढ़ने से अधिक महत्त्वपूर्ण है उसके आशय को समझना । पाठों के तात्पर्यार्थ तक पहुंचना जरुरी है तात्पर्यार्थ इस प्रकार - कोई भी शरीरधारी चाहे व साधु हों या श्रावक हो, अथवा गृहस्थ हो वह बिना हिंसा जी सकता है? कदापि नहीं, क्योंकि भगवतीजी में स्पष्ट उल्लेख है जो एयइ जो चलइ.. इत्यादि उससे स्पष्ट रुप से हलन-चलन श्वासोश्वास लेनाछोडना कोई भी क्रिया में हिंसा रही हुई है तो फिर आप कहेंगे आचारांग के पाठ की संगति कैसे ? वह इस प्रकार -- दशवैकालिक सूत्र में साधु के लिए स्पष्ट उल्लेख है 'जयं चरे... जयं भुंजंतो भासंतो पावं कम्मं न बंधई' जयणापूर्वक व्यवहार करे तो हिंसा होने पर भी पाप कर्म का बंध नही होता, मतलब संसार में बिना हिंसा कोई जी नहीं सकता, वहाँ पर लाभालाभ का विचार करके जितनी बन सके उतनी हिंसा का त्याग करना चाहिये वही जयणा है । गृहस्थ का धंधा बिना मुडी लगाये चल ही नही सकता, आय-व्यय - का विचार करके आय-लाभ ज्यादा होता हो तो व्यापार-धंधा में नुकसान नही समझा जाता, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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