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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
१६५ का दर्शन पूजन सिद्ध होता है। दूसरें टीका आदि और प्राचीन ग्रंथों की अपेक्षा से श्रावकों के इतिहास की बात करते हो, तो उनमें तो विस्तार से सम्राट सम्प्रति, राजा कुमारपाल इत्यादि द्वारा मूर्तिपूजा-संघादि बातें आती ही हैं । तो उसे भोले लोंगों को फंसाने हेतु गलत ढंग से पेश क्यों किया जाता हैं ?
वस्तुतः आप जिसे मिथ्यात्व का अंग मानते हो, जोर-शोर से जिसका विरोध करते हों उस मूर्तिपूजा का बिंदु-विसर्ग तक भी निषेध बत्तीस सूत्रों में दृष्टिगोचर नहीं होता हैं । अगर बड़ा पाप हो, मिथ्यात्व का महत्व का अंग हो तो शास्त्र में कहीं पर भी उसका निषेध-देखने में न आए यह कैसे संभव है ? आगमों में मिथ्यात्वादि पापों को हेय माना है- परमात्मा ने उसका निषेध भी किया है । तो मूर्तिपूजा का निषेध क्यों नहीं किया? इससे सिद्ध होता है कि इसे आगम सम्मत कहने वाले नहीं, परंतु आगम विरूद्ध कहनेवाले ही उत्सूत्रभाषी हैं । ___ मंदिर-मूर्तियों के कला कौशल की प्रवृत्ति को सांसारिक रीति तो आप और आपके पक्षधर ही मानेंगे, मार्गस्थ-तटस्थ व्यक्ति उसे स्वीकार नहीं करेंगे। बनाने वाले उसे धार्मिक भावना से ही बनाते हैं। ___आगे जिनविजयजी के "प्राचीन जैन लेख संग्रह" उपोद्घात का अधूरा पाठ लेकर तस्कर वृत्ति कर के गलत आशय पेश करते हैं। लेख से मूर्तिपूजा नहीं थी ऐसा सिद्ध होता तो लेख का पूरा पाठ क्यों नहीं दिया ? उससे उलट सिद्ध होता हैं कि लेख से तो मूर्तिपूजा की सिद्धि ही होती थी । जिनविजयजी ने भी "मूर्तिपूजा अमुक समय पूर्व थी के नहीं - इस प्रश्न का निराकरण इस लेख से होता है। इतना ही कहा हैं । इन शब्दों से "मूर्तिपूजा आगम आज्ञा नहीं थी यह जिनविजयजी ने भी स्वीकार किया है'' ऐसा उनके नाम पर असत्य बताना तस्कर वृत्ति है । बेचरदासजी आदि के अभिप्राय प्रमाण भूत नहीं माने जाते हैं । वे उत्सूत्रभाषी होने से संघ से बहिष्कृत हुए थे। उनके बाद के विद्वानों ने उनके अभिप्राय का खंडन किया है । पं. कल्याणविजयजी, हंसराज शास्त्री लुधियाना हीरालाल दुग्गड़ आदि
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