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जैनागमसिद्ध मूर्तिपूजा
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कारणों से मूर्तिपूजा को भगवान् हेय मानते पर दूसरे पापों की तरह इसका कहीं पर भी खंडन नही किया यह तथ्य सुज्ञलोगों को अवश्य परमात्मा मूर्तिपूजा को हेय नहीं परंतु उपादेय मानते थें इस वस्तुस्थिति का बोध कराएगा ।
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( १ ) जैनागम विरूद्ध मूर्तिपूजा समीक्षा - इस संपूर्ण प्रकरण में एक स्थान पर भी डोशीजी आगम के द्वारा मूर्ति विरोध नही बता सके हैं । भोले लोगों को फंसाने हेतु वाग्जाल रची है
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शुरू में जो आप बताते हैं तीर्थंकर प्रभु को गृहस्थावस्था में साधु समान मानकर कोई वंदनादि नहीं करते । उसका जवाब यह हैं - चारित्र नहीं लिया तो साधु जैसे मानकर वंदनादि भला कौन करेगा ? परंतु इंद्रादि परम सम्यग्दृष्टि देव नमुत्थुणं से उस अवस्था में भी उनकी वंदना - स्तवना करते हैं और मेरु पर्वत पर जन्माभिषेक बड़े ठाठ से करते हैं । यह इस बात को सूचित करता है कि उस अवस्था में तीर्थंकर प्रभु द्रव्य निक्षेप से पूजनीय थे । इससे गुणों के अभाव में गुणों की प्रकृष्ट योग्यता को लेकर उस वक्त व्यक्ति-पूजा भी अपेक्षा से जैनदर्शन मान्य करता है । जैन दर्शन एकांतवादी नहीं हैं, अनेकांतवादी है ।
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आगे डोशीजी ‘“जैन समाज गुणपूजक हैं, आकृति या शरीर का पूजक नहीं ।'' इसके लिये तर्क देते हैं । वे भी बराबर नहीं हैं । गुणपूजक है इसीलिये आकृति शरीर-मूर्ति-पूजक भी है। गुण आकाश में नहीं रहते हैं आत्मा में रहते हैं आत्मा भी शरीर बिना रहती नहीं हैं अतः भेदाभेद होने से शरीर भी पूजनीय है । शरीर पूजेंगे, उस जड शरीर के माध्यम से ही आत्मा में रहे गुणों की पूजा होगी । जिस प्रकार सुगंध के लिए फूल को अपनाया जाता है । उस शरीर के आकार - मूर्ति से भी उन गुणों की ही पूजा करते हैं । जैसे जड़ शरीर के माध्यम से गुणों की पूजा वैसे ही जड़ मूर्ति के माध्यम से गुणों की ही पूजा करते हैं । जो बीच में माध्यम शरीर - आकारमूर्ति वगैरह उसका भेदाभेद संबंध होने से वे भी पूजनीय हैं । आकारमूर्ति स्थापना निक्षेप हैं उसका जिसकी स्थापना है उसके साथ भेदा-भेद संबंध होता है ।
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