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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
३८. मूर्तिपूजा के विरूद्ध प्रमाण संग्रह → समीक्षा
इसमें डोशीजी ने लिखा है "इस प्रकार मन से मोदक बनाने वाले चाहे सो मान लें, उन्हें प्रमाणित तो करना ही नहीं है, वहाँ तो हाथी के दांत सिर्फ दिखाने के ही हैं।" वह उनको खुद को लागू होता है। चूँकि आगे ‘“भगवान् महावीर के समय मूर्तिपूजा में धर्म मानने की श्रद्धा जैन समाज में थी ही नही ।" यह तो उन्होंने कहा है वह कल्पनामात्र - प्रमाणहीन हैं । वस्तुत: उस वक्त मूर्तिपूजा में अधर्म मानने वाले थे ही नहीं इसीलिये उसका खंडन नही हुआ है । और आगमों में भी उसे मतांतरो में लिया नहीं है ।
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मूर्तिपूजा की बातें तो शास्त्रों में अनेक जगह पर आयी हैं। रायपसेणी, ज्ञाताधर्मकथा आदि अनेक सूत्रों के प्रमाण पीछे सिद्ध किए हैं । तो कैसे कह सकते हैं कि “चतुर्थ काल में मूर्तिपूजा में धर्म माननेवाला जैन समाज था ही नहीं ?"
अभी डोशीजी के असंबद्ध प्रलाप देखिये । पृ. २८० पर (चतुर्थकाल में) अजैन समुदाय में भी मूर्तिपूजा में धर्म मानने की रीति नहीं थी' और आगे पृ. २८२ में (१) ‘अजैनो में तीर्थयात्रा करने का रिवाज भगवान् महावीर के समय का था' 'ऐसा लिख रहे हैं । तीर्थयात्रा सांसारिक हेतु से नहीं की जाती है, उसमें धर्मभावना ही होती है । असत्य की सिद्धि करने की कोशिश छिप नहीं सकती ।
आगे डोशीजी लिखते है "मंडन नहीं होते हुए भी खंडन नहीं मिलने मात्र से ही किसी रीति को स्वीकार्य समझा...." यह बात भी बराबर नहीं हैं । चूँकि पाठक इस ग्रंथ में पीछे आगमों में मूर्तिपूजा का मंडन स्पष्ट रूप से है, उससे अवगत हैं ही, तो मंडन नही ऐसा कहना वस्तुतत्व को छिपाना है । परमात्मा ने - गणधरों ने मूर्तिपूजा का खंडन नहीं किया है, इसमें भी तथ्य ही है, उपादेय का खंडन कभी होता नहीं है । अगर मिथ्यात्व हिंसादि
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