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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
५९ जिस कार्य में एकांत से नुकसान है उसका प्रभु निषेध करते ही है । जैसे गोशाले के आने पर मुनियों को गोशाले के सामने बोलने का प्रभुने निषेध किया, इससे स्पष्ट है मंदिर में नाट्यादि गृहस्थों के लिए विशिष्ट पुण्यबंध के कारण हैं । भक्तिभाव से करते नाट्यादि निषेध करने पर देवों को जो विशिष्ट पुण्यबंध होता है, उसमें विघ्न आएगा इसीलिए परमात्मा निषेध नही करते है यह अत्यंत स्पष्ट है। आगे डोशीजी मूर्तिपूजा पर द्वेष उगलते हुए विषय को बदलते एक कर्मवश साधु का दृष्टांत दे रहे है। इसमें मूर्तिपूजा का क्या दोष ? यह विषयान्तर हैं । कदाग्रहपूर्ण द्वेषबुद्धि के कारण डोशीजीने आगे भी ऐसे दृष्टांत दिये है। स्थानकवासी वर्ग में भी ऐसे दृष्टांत सुनने में आते है इसलिए स्थानकवासी पंथ को उसमें निमित्त मानेंगे? हम उन दृष्टांतो को यहाँ देना उचित नहीं समझते हैं ।
पृ.६ → जैन धर्म लोकोत्तर धर्म है। इस में व्यक्ति पूजा की अपेक्षा गुण पूजा को अधिक महत्व दिया गया है । गुणों के अस्तित्व से गुणी की पूजा होती है । निगुर्णी या दुर्गुणी तथा द्रव्यलिंगी को वन्दन करने का विधान जैन धर्म का नहीं है । जो भी व्यक्ति पूजा बाह्य दृष्टि से दिखती देती है, उसके लिए समझदारों को यह ध्यान में रखना चाहिए कि यह व्यक्ति पूजा नहीं, किन्तु व्यक्ति के भीतर विद्यमान महान् व्यक्तित्व - अर्थात् गुणों-की ही पूजा है । क्योंकि जब तक पूजा पानेवाले व्यक्ति में उत्तमगुणों का होना पाया जाता है तब तक ही वह पूजनीय होता है । किन्तु जब उपासक को यह मालूम हो जाए कि जिसे हम अपना आदर्श गुरू मानकर वन्दना नमस्कारादि करते हैं, उन में गुरुत्व के गुण तो है ही नहीं, केवल, वेषभूषा से ही वे हमे धोखा दे रहे हैं । तो शीघ्र ही उनका बहिष्कार और निरादर कर दिया जाता है । जैनागमों के अभ्यासी यह जानते है कि जब तक जमालि-गोशाला आदि में शुद्ध श्रद्धा थी, तब तक ही वे जैनियों के लिए वन्दनीय पूजनीय थे । किन्तु जब वे श्रद्धा भ्रष्ट हुए और इसकी खबर जैनियों को लगी तब शीघ्र ही वन्दना नमस्कार बंद कर, बहिष्कार बोल दिया । यह गुण-पूजकता
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