________________
५८
- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा है और जो संवर का कारण है वही आश्रव का कारण बनता है स्पष्टरुप से जो कर्मबंध के कारण है वे व्यक्ति भाव वगैरह बदलने से कर्मनिर्जरा के कारण बन सकते हैं । मंदिरजी में इंद्रिय पोषण की सामग्री में उसके उपयोग में श्रद्धावान भक्त को अध्यवसाय की संक्लिष्टता का अनुभव होता ही नही है, प्रत्युत शुभभाव की वृद्धि प्रत्यक्ष-अनुभवसिद्ध है । मूर्ति को इंद्रियपोषण कहते है, उनको गौतम प्रसादी व्याख्यान बाद लड्डु बाँटना, चातुर्मासों के रसोडें में इंद्रिय पोषण नही परंतु भक्ति दिखाई देती है, यह सब मिथ्यात्व के काले चश्मे का प्रभाव है । बडे बडे स्थानक रंग-बिरंगी रंगो से सजाया जाता है, वहाँ इन्द्रिय पोषण क्यों नहीं दिखता? गुरु भगवंतो के फोटे. बेचना, यंत्र आदि देना, नम्रमुनि नाम के स्थानकवासी संत आज कल ३१ दिसम्बर क्रीश्चन पर्व भी आयोजित करते है इसमें केक आदि अभक्ष्य चीज भी दी जाती है ।
पृ. ५-६ → जैन मन्दिरों में भी काम वर्द्धक सामग्री तथा रसीले गान, तान नृत्यादि क्रियाओं के प्रभाव से और स्त्री पुरूषों, युवक, युवतियों के सम्पर्क से विकार वर्धक भावनाओं का उत्पन्न होना स्वाभाविक है।
समीक्षा → ये सब बातें स्थानकों में स्पष्टरुप से दिखाई देती है। अनेक स्थलों में स्थानकों का शादी वगैरह में उपयोग करते है वहाँ स्पष्ट रुप से संसार वर्धक इंद्रियपोषण होता है। मंदिर मे शुभ भावलहरी उमड़ती अनुभव गम्य है, भक्त के मन निसीहि बोलने पर उन वस्तुओं की कीमत नहीं होती है । भगवान ने जिस प्रकार 'सल्लंकामा-विसंकामा' ऐसा कहकरकामभोग का निषेध किया, इसी प्रकार सूर्याभ देव द्वारा रचित ३२ नाटकों का निषेध नहीं किया है। ऐसा क्यों ? साक्षात् तीर्थंकरों की हाजरी में समवसरण में देवों के नाटक वगैरह हुए उसमें साधुओं को विक्षेप इन्द्रियपोषण स्पष्ट होते हुए भी खुद पररमात्मा ने निषेध क्यों नही किया ? उनकी आज्ञा मांगने पर भगवान मौन रहे, इन्कार नही किया, क्यों? एकांत से इंद्रियपोषण मिथ्यात्व पाप ही होता तो निषेध ही करते । मूर्तिपूजा का मर्म समझने वाला सामान्य व्यक्ति भी समझता है कि मूर्तिपूजा का उद्देश्य निर्विकारी बनाता है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org