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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
२११ अंत में आचार्य श्री ने बताया कि "अपने आराध्य की पूजा के लिए स्मृति की जाती है......स्मृति करने के दो साधन होते हैं - नाम और रूप.......म-हा-वी-र शब्द में तो कोई गुण नहीं है, वह तो केवल चार अक्षर का अचेतन नाम है, पर महावीर का नाम मस्तिष्क में आते ही उनकी स्मृति हो जाती है.....जैसे नाम के द्वारा स्मृति होती है, वैसे ही रूप के द्वारा भी स्मृति हो जाती है । आकार-प्रकार को देखने से ज्यादा सरल तरीके से प्रभु की स्मृति हो सकती है" इस प्रकार आचार्य श्री नाम को भी मूर्ति की तरह जड़ मानते है और मूर्ति को नाम से भी स्मृति का विशेष साधन मानते है, परंतु उपसंहार में कहा कि - "मेरा मानना है, कोई व्यक्ति प्रतिमा की पूजा भले ही न करे, तन्मयता से नाम स्मरण के द्वारा प्रभु की भक्ति करें तो कल्याण निश्चित है ।" इस प्रकार केवल नाम को ही महत्व देते
नाम और रूप से बात चालु की और उपसंहार में केवल नाम-स्मरण की प्रेरणा की । इसमें रूप की शक्ति नाम से उचित न्याय मानते हुए भी प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि नाम भी जड़ है तो भी नाम स्मरण की प्रेरणा की जाती है, उसी प्रकार कम से कम प्रभु दर्शन की प्रेरणा भी की जा सकती ही है। __अंत में सभी से अनुरोध है कि इस लेख को तटस्थता से पढ़कर स्याद्वाद दृष्टि, मनोवैज्ञानिक दृष्टि, आगमिक दृष्टि एवं तर्क दृष्टि से द्रव्यपूजा एवं भावपूजा का समन्वय समझकर मूर्तिपूजा को सही रूप से समझने का प्रयास करें । जिनाज्ञा के विरूद्ध कुछ लिखा गया हो तो मिच्छामि दुक्कड़म्
-भूषण शाह
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