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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा ४. हृदय की बात भारतीय संस्कृति धर्ममय संस्कृति है। धर्म की संस्कृति बाल, आबाल, वृद्ध सभी के लिए महाकल्याण करनेवाली है। उसमें भी जिनधर्म को प्राप्त हुए भव्य मानव विशेष कल्याण को शीघ्र प्राप्त करते हैं। इस पुस्तक में प. पू. ज्ञानसुन्दरजी म. आदि सुसाधुओं का जिनशासन के प्रति सच्चा समर्पणभाव फलित होता है उन्होंने 'मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास' नाम से जो पुस्तक लिखी थी उसमें पठन सामग्री सत्य सहज प्रमाणों के साथ दी गई है। परन्तु इस पुस्तक की सामग्री का विरोध बिना प्रमाण के केवल मनघडंत स्वमति से व्यक्तिगत एकान्तिक विचारों के साथ श्री रतनलालजी डोशी द्वारा किया गया हैं । "जैनागम विरूद्ध मूर्तिपूजा' शीर्षक देकर 'श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ' जोधपुर-शाखा नेहरुगेट बाहर ब्यावर' द्वारा कथित रूप से वह पुस्तक प्रकाशित कर जैन संस्कृति के सत्य रुप का भक्षण किया है । इस पुस्तक में भगवान महावीर के अनेकान्तवाद सिद्धान्तों का पूरी तरह लोप करते हुए सिर्फ मिथ्या मंडन का प्रकाशन किया गया है। कोई भी समकितधारी व्यक्ति श्रावक या साधु ऐसे प्रकाशन से स्वाध्याय करते हुए कष्ट और विभावदशा का ही अनुभव करता
सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक साहित्य रत्नमाला का ११० वा रत्न 'जैनागम विरूद्ध मूर्तिपूजा' पुस्तक का तटस्थता पूर्वक अध्ययन करने पर अनुभव होता है कि आपके विचार तलस्पर्शी सत्य अन्वेषक और सत्य तथ्यपूर्ण नही हैं । मूर्तिपूजा के विरोध में तमाम तरह की दलीलें पुस्तक की शुरूआत से ही मिथ्या मार्ग प्रतिपादना का ही स्वरूप प्रगट करती है । डोशीजीने स्वयं भी मूर्तिपूजा नही की । उनका हृदय भावशून्य प्रकट होता है। एक व्यक्ति मात्र की स्वतंत्र विचारशैली को पुस्तक प्रकाशन का माध्यम बनाकर जैनधर्म की मूर्तिपूजा विरुद्ध संस्कृति विषयक बात को जनमानस पर थोपा नहीं जा सकता है । अनेकान्त शैली के बिना लिखी गई मूर्तिपूजा विरोधी बातें एकान्तिक भाव में होने से शास्त्र सम्मत नही हो सकती है।
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