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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा से भरे पड़े हैं । जिनका जन्म ही मिथ्यात्व विष रुपी जड़ से हो, वह सम्पूर्ण वृक्ष ही विषैला हो जाता है । वे जैनधर्म का चाहे इतिहास लिखेंगे या आगमों का अर्थ लिखेंगे, सत्य नहीं ही लिखेंगे क्योंकि उनको जिनमंदिर व जिनमूर्ति में आस्था नहीं है । स्थानकवासी पंडितश्री सुखलालजी अपने पर्युषणा व्याख्यान “मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास' में लिखते हैं कि
* हिन्दुस्तान में मूर्ति के विरोध की विचारणा मुहम्मद पैगम्बर के पीछे उनके अनुयायी अरबों और दूसरों के द्वारा धीरे धीरे प्रविष्ट हुई।
जैन परम्परा में मूर्ति विरोध को पूरी पांच शताब्दी भी नहीं बीती
स्थानकपंथी मूर्धन्य आचार्यश्री हस्तीमलजी म. अपने "जैनधर्म का मौलिक इतिहास-खंड-२, टिप्पणी पृ. ३२" में लिखते है कि
* मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई का कार्य सर्वप्रथम ई. सन् १८७१ में जनरल कनिधम के तत्त्वावधान में, दूसरी बार सन् १८८८ से १८९१ में डा. फ्यूचर के तत्त्वावधान में तथा तीसरीबार पं. राधाकृष्ण के तत्त्वावधान में करवाया गया। इन तीनों खुदाईयों में जैन इतिहास की दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण विपुल सामग्री उपलब्ध हुई। वह सामग्री आज से १८९१ से लेकर १७ १८ वर्ष की प्राचीन एवं प्रामाणिक होने के कारण बड़ी विश्वसनीय है।* ___ * मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई से निकले ई. सन् ८३ से १७६ तक के आयाग पट्ट, ध्वजस्तंभ, तोरण, हरिनगमेषी देव की मूर्ति, सरस्वती की मूर्ति, सर्वतोभदप्रतिमाएँ, प्रतिमा पट्ट एवं मूर्तियों की चौकियो पर उटूंकित शिलालेखों से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि वस्तुत: ये दोनों स्थविरावलियां (श्री नंदीसूत्र की स्थविरावली और श्री हिमवंतस्थविरावली) अति प्राचीन ही नहीं, प्रामाणिक भी है। ..
समीक्षा : उक्त बयान से स्थानकवासी आचार्यश्री हस्तीमलजी स्वयं स्वीकार करते है कि- मथुरा के कंकाली टीले से जैन इतिहास के अवशेष
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