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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
७१ वर्णन जानकर जब तक उसका आकार बनाया नहीं जाता, वह, मृतिस्वरूप हो या कल्पनास्वरूप उसका चिंतन अशक्य है।
मूर्तियों में तो जीवितस्वामी की मूर्ति जो प्रभुवीर के संसारी भाई नंदीवर्धन ने बनवाई है। आज दीयाणा नांदीयाजी में है। जो परमात्मा की विद्यमानता में बनी है । अनादि काल से मूर्तियाँ-मूर्तिपूजा चली आती है अतः निश्चित आकार, नाप आदि शिल्पशास्त्रों में प्रसिद्ध हैं, उनके आधार पर बनाई जाती है, अकेली कल्पना नहीं होती है।
इन सब बातों से ज्ञानसुंदरजीने जो कहा है "तुम कल्पना करते हो, हम मूर्ति बनाकर पूजते है' बिलकुल सही बात है । प्रतिष्ठा, संघ इत्यादि प्रभु भक्ति का ही प्रकार है।
पृ. ३० → मिथ्याप्रशंसा की समीक्षा
इस प्रकरण में पिटी-पिटाई बाते वापस दोहरायी हैं । मूर्ति, मूर्तिपूजकों की भरपेट निंदा की है, जिनका जवाब पीछे दे दिया है। विशेष में मूर्तिपूजकों के धनदौलत मंदिर-तीर्थ संघयात्रादि धार्मिक कार्यों में लगते है, वे शुभ भावहेतु, सम्यग्दर्शन, शासनप्रभावना के कारण बनने से सफल है । आबू, राणकपुर जैसे तीर्थों में सालों तक हजारों मजूरों को रोजी-रोटी मिलती थी, वर्तमान में भी तीर्थों पर अनेकों का निभाव होता है, उससे उनकी धनदौलत सफल है । स्थानकवासियों को सब जगह हिंसा ही दिखती है, कहीं पर धन लगावे उस निमित्त से हिंसा होगी । उनकी मान्यता से पाप का कारण बनेगा। अतः दो रास्ते धन के होंगे ममत्व भाव से संग्रह-परिग्रह करके दुर्गतिगामी होंगे अथवा शादी वगैरह सांसारिक पापकृत्यों में करोड़ों का खर्च करके पापवृद्धि संसार वृद्धि करेंगे।
खासतौर से पाठक ध्यान देवे दोनों पुस्तको का मध्यस्थभाव से पठन करेंगे तो स्पष्ट रुप में डोशीजी की चालाकी दिखाई देंगी। ज्ञानसुंदरजीने प्रमाणों के साथ, अनेक विद्वानों के अभिप्राय के साथ लौकाशाह की जीवन झलक बताई है, उस विषय को डोशीजीने जान बूझकर छोड़ दिया है । उसके अलावा आप कर ही क्या सकते थे? लौकाशाह जीवन वृतांत के .
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