________________
७२
. जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा लिये - स्थानकवासी समाज के पास कोई ऐतिहासिक प्रमाण ही नही है, अपनी-अपनी कल्पनाओं से नवलकथा की तरह संतबालजी, शाह आदिने लौंकाशाह का चरित्र लिख डाला है । लोंकाशाह का जीवन अंधकारमय हैं। प्रत्येक लेखक ने उनका जीवन अपनी कल्पना के आधार से ही लिखा है जो परस्पर विरोधी सिद्ध होता है । पाठक विशेष जानकारी के लिए ज्ञानसुंदरजी की ही लिखी "श्रीमान लौं काशाह'' नामक प्रामाणिक पुस्तक का अवलोकन कर सकते हैं । जिसका जवाब स्थानकवासी आज दिन तक दे नहीं पाये । ऐतिहासिक प्रमाणों से युक्त पुस्तक का जवाब बिना प्रमाण देंगे भी कैसे ? इसका विस्तृत प्रतिपादन आगे किया जाएगा।
पृ. ३२ → शाश्वती प्रतिमाएँ और सूर्याभदेव की समीक्षा
पृ. ३३ → किन्तु जो लोग समझदार है, जिन्होंने गुरुओं के समीप सूत्रों का स्वाध्याय कर उनकी वास्तविकता को समझ लिया है ? इनके चक्कर में नहीं आते ।
समीक्षा → इनके हिसाब से जो व्यक्ति कितने भी आगम पाठ, युक्तियों को देने पर भी मूर्तिपूजा न माने, कदाग्रह न छोड़े उसी ने वास्तविकता को समझा है । तथ्य की खोज करनेवाले समझ सकते है की - पूर्वकाल में प्रभु वीर से गुरुपरंपरा से सूत्रार्थ आते थें । लिखने का, पुस्तकों का उपयोग नहीं था, विस्मृति-बुद्धिबल क्षीणतादि कारणों से वीर निर्वाण ९८० वर्ष बाद देवर्द्धि गणि क्षमाश्रमणजीने आगम लिखवायें, उसमें परंपरा से आती नियुक्तियाँ-भाष्य-टीकादि का समावेश था, जिसे अर्थागम कहा जाता है । स्थानकवासी पंथ लौंकाशाह से सिर्फ ५०० साल पूर्व चालू हुआ जो गृहस्थ थे उनको आगम पढ़ने का अधिकार ही नही था, तो किस गुरु के पास उन्होंने आगम स्वाध्याय किया? सत्य का अन्वेषण करनेवाले तटस्थ व्यक्ति अवश्य समझ पाएंगे - जिस पंथ के आद्यपुरूष के पास भी गुरूपरंपरागत वास्तविक अर्थ नहीं है, तो उनसे चली मनमानी परंपरा में गुरुगम से ज्ञान आएगा ही कैसे?
दूसरी बात हुक्मीचंदजी वगैरे भवभीरु स्थानकवासी मुनिओं ने टीका
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org