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________________ १९४ - जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा 3९. उपसंहार का संहार → समीक्षा इसमें डोशीजीने ज्ञानसुंदरजी म.सा. द्वारा पृ. ११५ पर दिये उपसंहार का खंडन किया है जो बराबर नहीं है । (१) इसमें ज्ञानसुंदरजीने तीर्थयात्रा के लाभ आरंभादि त्यागब्रह्मचर्यपालन पुण्यकार्य में द्रव्य व्यय बताये, वे योग्य ही है। डोशीजी कहते हैं हमारे पूर्वज आनंदादि श्रावक मंदिर - यात्रा बिना ही धर्मसाधना करते थे इसके उत्तर में उपासकदशांगसूत्र में पीछे भली भांति सिद्ध किया है आनंदादि ने जिनप्रतिमा के सिवाय अन्य को वंदन नही करने की प्रतिज्ञा की थी इससे तो वे आपके पूर्वज सिद्ध नहीं हुए, हमारे पूर्वज सिद्ध होते है । यह तो स्पष्ट बात है कि तीर्थयात्रा में नहीं जाए घर बैठा रहे तो पूरे दिन सामायिकादि नहीं करेगा- संसार खाते में धन खरचेगा-तीर्थयात्रा में उनसे निवृत्तिरुप स्पष्ट लाभ है। तीर्थयात्रा करनेवालों का खुद का अनुभव भी है । की वहाँ पर आत्मशांति विशिष्ट अनुभूति एवं धर्म में धन व्यय से आत्मीय आनंद होता है । उसमें पापारंभ और फिजूल के द्रव्य व्यय का अनुभव किसी को भी नहीं होता है । पीछे प्रकरणो में चारणमुनि की तीर्थयात्रा, अष्टापद पर प्रभु के स्तूप आचारांग नियुक्ति में १४ पूर्वी भद्रबाहुस्वामीजी ने अष्टापदादि तीर्थवंदना की है इन प्रमाणों से तीर्थयात्रा की सिद्धि होती है। (२) इसमें ज्ञानसुंदरजी म. ने द्रव्य पूजा नहीं करनेवाले भी मंदिर में माला नमुत्थुणं आदि द्वारा पुण्योपार्जन - कर्मनिर्जरा करते थें वह बराबर ही है । आलंबन होता है तो उससे धर्मप्रवृत्ति के भाव होते हैं । मूर्तिपूजकों के लिये तो उपाश्रय में प्रतिक्रमणादि में नमुत्थुणं सामायिकादि में माला इत्यादि होते ही हैं । मंदिरजी की क्रिया में चैत्यवंदनादि नमुत्थुणं का लाभ विशेष होता है । स्थानकवासियों के स्थानक में प्रतिक्रमणादि में ही वह होता है । अतः स्थानकवासियों की अपेक्षा विशेष लाभ होता ही है । पृ. ३०४ पर डोशीजी लिखते हैं कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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