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________________ २७२ परिशिष्ठ-३ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा कि जैन समाज का कोई भी समुदाय चाहे मंदिर में हो, घर में ही चातुर्मास के रसोड़े में हो त्रस जीवों की हिंसा जानबुझकर या इच्छापूर्वक करता नहीं, कहीं पर भी मात्र स्थावरकाय का ही उपयोग होता है। अनजाने में या प्रमाद से हो जाये तो उस के लिये हर किसी के दिल में पश्चाताप जैसा होता ही है फिर भी आप हर बात में छह काय की हिंसा का ही राग आलापते हैं । यह आपकी मरजी है न तो मंदिर, न किसी के घर में, न किसी चातुर्मास के रसोई घर में त्रस काय की हिंसा करने की प्रथा है जो मांसाहारी है वे ही यह कार्य करते हैं। आपने अपने पत्र में श्रेणीक राजा ने दीक्षा नहीं ली थी, इसे अविरति कहा है तो मूर्ति पूजा करने वाले भी अविरति अवस्था वाले ही करते है। विरती वाले नहीं और मूर्ति पूजा करने वाले अविरती से विरती. बनने की भावना रखते ही है, रखना ही चाहिए, इसी भावना से मूर्ति पूजक समाज में हजारों साधु साध्वी विद्यमान है। यह बात भी निश्चित है कि मूर्ति पूजा समाज में विधी कार्य में कई बाते अजैनों के देखा-देखी घुसकर रुढ़ हो गई है, जिसका सुधारना जरुरी है। लिखी हजारीमल का जय जिनेद्र। ' *** श्रीमान् दिनेशकुमारजीजैन, . 'जय जिनेन्द्र' मेरठ आपके पत्र का जवाब दिया है आशा है मिल गया होगा। कुछ स्पष्टीकरण करने की इच्छा से यह पत्र और लिख रहा हूँ। ___ भगवती सूत्र के शतक तीन उद्देशक दो में चमरेन्द्र का ही पूरा वर्णन है 'चमरेन्द्र' का प्रकरण तो भगवान महावीर की छद्मस्थ अवस्था में हुआ है 'चमरेन्द्र' जो पूर्व में पूरण नाम से तापस था अपने कठिन तप आराधना से असुरकुमारों के देवलोक में चमरेन्द्र के रुप में उत्पन्न हुआ है। अपने बाल तप या अज्ञान तप होने के कारण अभी तक सम्यक्त्व से रहित है चमरेन्द्र में उत्पन्न होने के बाद जब सौधर्म देव लोक में जाने की वहां शकेन्द्र से लड़ाई करने की सोचता है तब Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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