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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा करते हैं, और उसमें भी जिनमंदिर और जिनमूर्ति की बात को अमान्य करते
हैं।
ऐसी स्थिति में पंचमहाव्रतधारी संतों का दूसरा महाव्रत कैसे रहता है ?
दूसरी बात द्रौपदी की पूजाविधि अधिकार में मूलसूत्र में लिखा है कि 'द्रौपदीने सूर्याभदेव की भांति जिनप्रतिमा का पूजन किया अर्थात् जिस विधि से सिद्धायतन गत जिनप्रतिमाओं का पूजन सूर्याभदेव ने किया, उसी भांति उसी विधि से यहाँ पर द्रौपदी ने जिनप्रतिमा की पूजा की । इस उल्लेख से प्रतिमा का पूजनमात्र चरितानुवाद रूप न रहकर विधेयरूप बन जाता हैं । चरित्रगत जिस कर्तव्य का दूसरों के लिये उदाहरण रूप से निर्देश किया जाय वह चरित्रमात्र नहीं किन्तु विधेय-कर्तव्यरूप हो जाता है. सूर्याभदेव का अधिकार राजप्रश्नीयगत सूर्याभदेव की पूजाविधि को दृष्टान्तरूप से उपस्थित करने का अर्थ ही मूर्तिवाद को,विधेय-विधिनिष्पन्न प्रमाणित करना है।
अपनी कल्पना से जो सिद्धांत गढा हो, वह सिद्धांत कोई शास्त्रीय दृष्टांत में बाधित होता हों (खोटा साबित होता हो) तो वह कल्पित सिद्धांतखोटा है, ऐसा मानकर बदलना चाहिए । आगमिक दृष्टांत से आगमिक सिद्धांत निश्चित होता है, इसीलिए द्रौपदी, सूर्याभदेव, आदि के दृष्टांत से मूर्तिपूजा का सिद्धांत निश्चित (यह सच्चा है ऐसा निर्णय) होता है ।
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