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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
१३५ दूसरी बात यह है कि अभयदेवसूरिजी म.ने जो कहा है वह अलग संदर्भ में, उसे डोशीजी अलग संदर्भ में ले रहे हैं देखिये पूरा टीका पाठ इस प्रकार है
* “न च द्रौपद्याः प्रणिपातदण्डकमात्रं चैत्यवन्दनमभिहितं सूत्रे इति सूत्रमात्रप्रामाण्यादन्यस्यापि श्रावकादेस्तावदेव तदिति मन्तव्यं, चरितानुवादरूपत्वादश्य न च चरितानुवादवचनानि विधिनिषेधसाधकानि भवन्ति" *
इसमें द्रौपदी ने केवल नमुत्थुणं बोलकर चैत्यवंदन किया ऐसा सूत्र में बताया है, इसलिये दूसरे श्रावकों को भी ऐसा ही करना, संपूर्ण चैत्यवंदनविधि करने की जरूर नही ? ऐसा पूर्वपक्ष बताकर इसके समाधान में बताते हैं सूत्र में अकेले नमुत्थुणं से चैत्यवंदन की जो बात की है वह चरितानुवाद स्वरूप है । चरितानुवाद वचन विधि-निषेध साधक नहीं होते हैं । इससे पाठक समझ सकेंगे अभयदेवसूरिजी को चरितानुवाद से अकेले नमुत्थुणं सूत्र से जो चैत्यवंदन किया वह अभिप्रेत है । दूसरे श्रावकों को पूर्ण चैत्यवंदन विधि करनी चाहिये, सूत्र में जो अकेला नमुत्थुणं बताया है वह चरितानुवाद स्वरूप समझना चाहिए, ऐसा उनका कहना है । इस बात को डोशीजी किस तरफ खींच ले गए ? सच यह है कि - स्थानकवासी संत और श्री डोशीजी आदि श्री जैनागम और जैनागमों की वृत्ति, चूर्णि, भाष्य, टीका आदि के सहारे ही अपना साहित्य आदि लिखते हैं । क्योंकि इस बेबुनियाद परंपरा के पास अपना स्वयं का तो कुछ है ही नहीं ।
पर जब जिन मंदिर और जिनमूर्ति की आगम शास्त्रों में बात आती है, तो तुरन्त ही कुतर्क करने बैठ जाते हैं । और अन्य स्थल पर कुतर्क नहीं करके सभी बाते मान लेते हैं । पर इस अनागमिक परंपरा ने जिनमंदिर और जिनमूर्ति का ही विरोध-अपलाप-इन्कार किया है, जिससे इस विषय में आगमशास्त्रों को भी झुठलाते हैं । और प्राचीन शास्त्रकारों को भी अमान्य कर देते हैं।
रामायण, महाभारत आगमशास्त्रों में नहीं है, तो भी इनका स्वीकार
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