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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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माध्यस्थ दृष्टि के लिए आधुनिक विद्वानों में भी अत्यंत लोकप्रिय ऐसे हरिभद्रसूरि जी ने अपने संबोध प्रकरण में कहा है कि :
" तम्हा जिणसारिच्छा जिणपडिमा सुद्धजोयकारणया तब्भत्तीए लब्भइ जिणिंदपूयाफलं भव्वो" ।। (१८) अर्थात् मनवचनकाय के योगों की शुद्धि का कारण होने से जिन प्रतिमा साक्षात् जिन जैसी है और उसकी भक्ति से भव्य जीव जिनेन्द्र की पूजा का फल प्राप्त करता है । क्योंकि आकृति की असर मन पर होती है और मन ही कर्मबंध आदि में मुख्य कारण है ।
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आचार्यश्रीने संबोध में कहा कि
" जैसे अहिंसा को समझने के लिए हिंसा समझनी जरूरी हैं, उसी तरह भावपूजा के पहले द्रव्यपूजा समझनी जरूरी है ।" ऐसा कहकर के द्रव्यपूजा को भावपूजा का प्रतिपक्ष बताया है । परंतु हकीकत यह है कि द्रव्यपूजा भावपूजा का प्रतिपक्ष नहीं है, किन्तु उपष्टंभक है । जैसे बाह्य तप अभ्यंतर तप का पूरक होता है, उसी तरह द्रव्यपूजाभावपूजा की पूरक है परंतु प्रतिपक्ष नहीं है ।
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द्रव्यों की दुनियां में जीने वाले और द्रव्य के द्वारा जिनके भावों पर अत्यधिक असर होती हैं ऐसे गृहस्थ जो द्रव्य का संचय करते है, उनके द्रव्य की मूर्च्छा त्याग करवाने में कारण होने से एवं भक्ति के भावों में विशेष वृद्धि का कारण होने से द्रव्यपूजा श्रावक की भूमिका तक विशेष आदरणीय है ।
आचार्य श्री के संबोध के सार रूप निम्न बातें ध्यान में आयी जिन पर विचार प्रस्तुत किये जा रहे हैं :
१. द्रव्य निक्षेप पूजनीय नहीं जैसे गृहस्थावस्था में विमलनाथ भगवान अपूजनीय थे ।
२. प्रतिमा चेतना शून्य होने से पूजनीय नहीं है ।
३. द्रव्य पूजा में धूपदीप आदि का निषेध क्यों नहीं हैं ?
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