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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
२०५ हुए खिलौनों का साम्राज्य होता है। थोड़ा बड़ा होता है तो खिलौने, वीडियो गेम्स, टी.वी. कार्टून आदि उसके मन को प्रभावित करते है । युवानी में सिनेमा आदि की अत्यधिक असर होती है जो उसे गुमराह भी करती है। अत: ऐसे आलम्बन की जरूरत है जो हमेशा उसे सच्चे राह पर चलने की प्रेरणा करे । व्यक्ति अपने प्रियजन के विरह में उसका चित्र आदि अपने पास रखकर उसके वियोग के दुःख को कुछ कम करता है, वह चित्र भी उसे प्रियजन की तरह अत्यंत प्रिय होता है । यह मानव मन का सहज स्वभाव है ।
स्वामी विवेकानन्दजी के प्रसंग से भी इसी बात की पुष्टि होती हैं । "स्वामी विवेकानन्दजी का अलवरके राजा के साथ मूर्तिपूजा के विषय में वार्तालाप हुआ । राजा को मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं था और वह अपनी मान्यता में दृढ था । स्वामी जी ने राजा के पिता की तस्वीर का अपमान किया तो वह क्रोधित हो गया । तब स्वामी ने समझाया वस्तु जड़ हो फिर
भी मानव मन का स्वभाव है कि वह स्थापना रूप चित्र या मूर्ति में आस्था रखता ही हैं । इसलिए तो राष्ट्रध्वज जड़ है फिर भी प्रत्येक राष्ट्रभक्त की आस्था उसके साथ जुड़ी हुई है, उसका अपमान करना तो कानूनी अपराध भी माना गया है ।"
श्री दशवैकालिक सूर्य की गाथा "चित्तभित्तिं न निज्झाए' भी यह सूचित करती है कि स्त्री आदि के चित्रों को साधु न देखें । क्योंकि उन चित्रों से राग के संस्कार प्रगट हो सकते हैं ।
चित्रजगत् से मानव मन पर होने वाली असर को देखने के बाद हम देखते है कि धार्मिक जगत में इसका क्या योगदान है। जैसे प्रिय व्यक्ति के विरह में व्यक्ति उसका चित्र आदि रखता है, उसी तरह तीर्थंकरों के विरह में अपनी कृतज्ञता एवं भक्ति प्रदर्शित करने के लिए आलम्बन जिनप्रतिमा है । भक्त अपनी भक्ति के भावों को जिनप्रतिमा के आगे प्रगट करता है
और साक्षात् तीर्थंकर की भक्ति का फल प्राप्त करता है । यह बात निराधार नहीं परंतु योगग्रंथो के सर्जक, सूरिपुरंदर, १४४४ ग्रंथों के रचयिता एवं अपनी
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