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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा 3. स्थानकवासी पंथ स्थानकवासी परंपरा के आधे व्यक्ति लोकाशाह की भांति अज्ञानी थे, जिन्होंने मूर्ति-मूर्तिपूजा व जिनमंदिर का विरोध किया था। श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ से यह नयी परंपरा निकली है, जिसे करीब ५०० वर्ष हुए ।
इन्होने हिंसा के नाम पर यह बेबुनियाद नयी परंपरा चलायी थी। उनका मत है कि - जिनेश्वर भगवान की मूर्तिपूजा में दीपक से अग्निकाय की, धूप से वायुकाय की, जल से अप्काय की, और फूल से वनस्पतिकाय जीवों की हिंसा होती है ।
दूसरा उनका कहना है – जिनेश्वर की मूर्ति जड है, उसमें चेतना नहीं है, जब कि - हमें गुणपूजक बनना चाहिए, न कि जडपूजक।
इन दो बातों से स्थानकवासी संत जिनमंदिर, जिनेश्वर की मूर्ति व मूर्तिपूजा का विरोध करते है।
जहां तक हिंसा का प्रश्न है : सो वे स्थानकवासी संत भी अपने भवन, अपने गुरु के गुरुमंदिर-गुरुमूर्तियों का निर्माण आदि करवाते हैं, तो क्या इसमें हिंसा नहीं है ? यह कितना आश्चर्य कि छद्मस्थ गुरु के मंदिर निर्माण में व प्रतिमा निर्माण में उन्हें हिंसा नहीं दिखती है और वीतराग - सर्वज्ञ - तीर्थंकर के जिनालय व मूर्ति में ही उनको हिंसा दिखाई देती
स्थानक निर्माण में भी हिंसा है, फिर क्यों वे स्थानक निर्माण करवाते हैं ? किताब छपवाने में भी हिंसा है, फिर क्यों वे किताब छपवाते हैं ? सार्मिक भोजन में भी हिंसा है, फिर क्यों वे सार्मिक भोजन करवाते हैं ? गरमागरम पानी-दूध बोहराने में भी हिंसा है, फिर क्यों वे गरमागरम पानी-दूध बोहराते हैं ?
कहने का तात्पर्य यह है कि - स्थानकवासी संत जिनमूर्ति व जिनमूर्तिपूजा में विरोध करते है, यह तथ्यपूर्ण नहीं है। आलू-प्याज-मूली
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