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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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मूर्तिपूजा के विरोध के व्यामोह में डोशीजी सामान्य जनमानस को असत्य का पाठ सिखा रहे हैं ।
संबोध प्रकरण, संदेह दोलावली - संघपट्टक इनकी बाते चैत्यवासीओं को उद्देशकर हैं । गृहस्थों के लिये नही । आवश्यक हारिभद्री में संयमीओं के लिये द्रव्यस्तव में दोष बताया है, गृहस्थों के लिये नहीं ।
आवश्यक ११०६ गाथा के बारे में पूर्ण तस्करवृत्ति की है । उसमें सुसमाहित संयत वंदनीय बताया है । नाम - स्थापना - द्रव्य निक्षेप की बात ही नही है ।
श्राद्धविधि में वहाँ पर भाव श्रावक का अधिकार है इतनी ही बात है, नाम-स्थापना- द्रव्य, भाव का कार्य नहीं कर सकते इसलिये उसका वहाँ पर प्रयोजन नही हैं इतना ही बताया है । ये तीनों खुद का कार्य तो करते ही है । इससे निकम्मे नही हैं ।
आवश्यक गा. ११३८ के संदर्भ को भी विपरीत पेश कीया है वहाँ पर द्रव्य भाव के संयोग से ही वंदनीय बताये हैं । मुनिवेश और मुनिभाव दोनो चाहिये । स्थापना और भावनिक्षेपे में उसको ले जाना अस्थान निरूपण है । ग्रंथकार के आशय से विरूद्ध है ।
'दीक्षानु संदर स्वरूप' में सागरानंदसूरिजीने चारित्र की महत्ता मात्र बतायी है । पूजा आदि हेय नहीं बताये हैं ।
हुकुममुनिजीका ग्रंथ देखने में नहीं आया संदर्भ में निश्चित गड़बड़ लगती है ।
पं. लालन को भी पं. बेचरदास की तरह संघबहिष्कृत किया है । वह प्रमाणभूत नही है । इससे आगेवाला बेचरदासजी का पाठ भी अप्रमाण है । प्रतिमाशतक के पाठ से तो मूर्तिपूजा का ही समर्थन होता है ।
पृ. २९७ पर श्री डोशीजीने महोपाध्याय श्री यशोविजयजी म. लिखित 'प्रतिमाशतक' ग्रंथ का पाठ लिखा है- यथा ...
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