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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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: सावद्यं व्यवहारतोपि भगवन् साक्षात् किल्- अनादिशत् । बल्यादि प्रतिमार्चनादि गुणकृत मौनेन संमन्यते
अर्थात् बलिविधान और प्रतिमापूजन आदि क्रिया व्यवहार से सावद्य ( निंदनीय ) होने के कारण भगवान् अपने मुँह से इसका उपदेश नहीं करते । किन्तु गुणकारी होने से मौन से इसका समर्थन करते है ।
फिर टिप्पणी में डोशीजी कटाक्ष में लिखते हैं कि
यही तो उपाध्यायजी की मूर्तिपूजकता है । शायद भगवान के मन के भाव उपाध्यायजी ने जान लिये हों ।
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समीक्षा : काम-भोग का या मांसखाने का भगवान स्पष्ट निषेध करते हैं, क्योंकि ये नरक के आश्रव है ।
जबकि बलिविधान और प्रतिमापूजा - एक बाजू स्थावरादि जीवों की हिंसा के कारण सावद्य है - दूसरी ओर सम्यग्दर्शन-विनय-धर्म में उत्साह कराने वाली है, इसलिए कामभोग का सर्वथा निषेध का उपदेश देते हैं, इस प्रकार बलिविधान और प्रतिमापूजा में भगवान् का न समर्थन है न सर्वथा निषेध है । इसलिए भगवान मौन रहते हैं ।
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कोई संयम लेने आएगा तब भगवान कहेंगे- देर मत करो, शीघ्र संयम प्राप्त करो । काम-भोग के लिए भगवान मना ही करेंगे। जब कि सूर्याभदेव - विजयदेव आदि का नाटक, प्रतिमापूजा आदि में भगवान मौन रहते हैं, यह ही उनकी अनुमति का द्योतक है ।
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विजयदेव - सूर्याभदेव के नाटक करने का पूछने पर भगवान न हाँ कहते है, न ना ही बोलते हैं, मौन रहते हैं - तब ये सम्यग्दृष्टि देव मौन का अर्थ हाँ समझकर ३२ नाटक करते ही है ।
प्रश्न - तीर्थंकर भगवान मौन क्यों रहते है ?
उत्तर नाटक में एक बाजू श्री गौतम आदि मुनियों के स्वाध्याय
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