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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
१९१ का व्याघात हैं, दूसरी बाजू सूर्याभदेव आदि की भक्ति-शुभभाव आदि गुणकारी सत्कार्य है । ऐसी अवस्था में भगवान मौन रहते हैं जिसे सम्मति मानी जाती है।
इसी प्रकार जिनमूर्तिपूजा में भी समझना चाहिए ।
पृ. २७ पर डोशीजी - पं. बेचरदासजी दोशी के नाम पर मूर्तिपूजा का निषेध लिखते है
पर यह अनुचित है -
क्योंकि (१) जैनागमों में जगह-जगह जिणपडिमा-अच्चणं, चैत्यवंदन, चैत्यद्रव्य, जिनघर, सिद्धायतन, शाश्वतजिन- इत्यादि शब्द आये हैं । श्री भद्रबाहुस्वामी जैसे चौदपूर्वधरोंने तथा श्री उमास्वाति जैसे १० पूवधरों ने - जिनमंदिर व जिनपूजा का समर्थन किया है।
(२) जैनधर्म में मूर्तिपूजा का निषेध ५०० वर्ष पूर्व लोकाशाह ने किया ।
(३) मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त प्राचीन जैनमूर्तियों के अवशेष भी जिनमूर्तिपूजा की सिद्धि करते हैं। ___ (४) आ. श्री. हरिभद्रसूरि जी म. आदि प्राचीन जैनाचार्यों ने चैत्यवास का विरोध किया था, जब कि चैत्य (जिनमंदिर व जिनपूजा) का समर्थन किया है।
(५) साक्षात् तीर्थंकर के आगे चामर ढुलाना या पुष्पों की वृष्टि करना - यह सब पूजा-भक्ति आदि के ही प्रकार है । जिसका प्रभु ने मौन समर्थन किया है।
(६) देवलोक आदि में रहे - शाश्वत चैत्यों के पाठ भी मूर्तिपूजा को आगमिक सिद्ध करते हैं । बाकी, जिनको सत्य का सहारा नहीं लेना हैं, उनको क्या कहें । स्वतन्त्र विचारक बेचरदासजी की बात माननी है और १४ पूर्वधर की नहीं, यह भी दृष्टिराग ही हैं ।
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