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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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पृ. २९९ पर श्री रतनलालजी डोशीजी दिगम्बर समाज के 'पात्रकेशरी' स्तोत्र - ३७ वें श्लोक का उद्धरण कर लिखते हैं कि ( पन्नालालजी बाकलीवाल द्वारा प्र. पृ. ३९)
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+ मोक्ष सुख से रहित करनेवाली "चैत्यवंदना - दान पूजा" आदि स्वरूप में सभी क्रियाएँ नाना प्रकार से प्राणियों के मरण और पीड़ा करने की कारण है । जिनेन्द्र ! जाज्वल्यमान केवलज्ञान से युक्त होकर आपने दान-पूजादि क्रियाओं का उपदेश नहीं दिया है । केवल तुम्हारी भक्ति करनेवाले श्रावकों ने उन क्रियाओं को स्वयमेव कर लिया है ।"
समीक्षा : (१) यहाँ चैत्यवंदन और जिनपूजा के साथ दान का भी निषेध किया है, तो श्री रतनलालजी डोशी आदि कट्टर स्थानकवासियों को इस बात को स्वीकार कर संत-सतियों को बोहराना भी नहीं चाहिए क्योंकि इसमें भी अग्नि, वायुकाय आदि की हिंसा भी है । न कबूतर को चुगा जुवारी का दान देना चाहिए | क्या स्थानकमार्गीयों को ये सब कबूल है ?
(२) सच यह है कि श्री आगमशास्त्र कथित मार्ग को छोडकर - ऐसे अप्रामाणिक स्वतंत्र विचारक पन्नालालजी, बेचरदासजी, लालनजी, हुकुममुनिजी, काका कालेलकर, पंडित चतुरसेन, स्वामी दयानंद सरस्वती आदि के कमजोर वचनों का सहारा लेना यही डोशीजी की मूर्खता है ।
अरे भाई ! सहारा लेना हों तो - पंचमहाव्रत धारी, शुद्ध संयमी आ० शीलांकाचार्य आ० अभयदेव सूरि, आ. मलयगिरिजी इत्यादि ज्ञानियों का लेना चाहिए ।
(३) अजैन विद्वान और मूर्तिपूजा
इसमें तीसरे नंबर का उदाहरण जैन पं. बेचरदास (जो संघ बहिष्कृत है) का है । वह प्रमाणभूत नहीं है । प्रतिज्ञा अनेक अजैन विद्वानों के अभिप्राय की करते हैं और दूसरे विशेष प्रमाण न मिलने से पुन: जैन विद्वान् का अभिप्राय देते है | देखिये कैसी चालाकी ?
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