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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा भी पृ. २८९ पर दिये हुए पाठ से भी श्रावक की करणी में मूर्तिपूजा सिद्ध होती ही है । देखिये श्री डोशीजीने लिखा पाठ इस प्रकार है
* "जइणं भंते जिणपडिमाणं वंदमाणे अच्चमाणे, सूयधमं चरित धम्म लभेज्जा ? गोयमा ! णो इणढे समठे। से केणढेणं भंते एवं वुच्चइ ? गोयमा ! पुढवीकायं हिंसइ जाव तसकायं हिंसई" * - अर्थ : श्री गौतमस्वामी प्रश्न करते हैं कि - (डोशीजीने "जइणं साधुको'' इतना अर्थ करना टाला है ।)
हे भगवंत् ! साधु को जिनप्रतिमा की वंदना अर्चना (पूजा) करने से क्या श्रुतधर्म और चारित्र धर्म होता है ? भगवान् कहते हैं - हे गौतम ! नहीं होता है।
पुनः गौतमस्वामी प्रश्न करते हैं कि - हे भगवन् ! आप ऐसा क्यों कहते हैं ?
भगवानने उत्तर दिया कि - हे गौतम ! इसमें साधु को पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय की हिंसा होती है ।
समीक्षा : विवाहचूलिया - सूत्र का यह पाठ पंचमहाव्रत साधुओं के लिए है और जिसमें पृथ्वीकाय आदि जीवों की हिंसा हो, ऐसी जिनअर्चाजिनपूजा आदि का साधु को निषेध है, साधु को भावपूजा संयमपालन व चैत्यवंदन आदि होता है। साधु को संयमपालन जैनागमों का शास्त्र-स्वाध्याय करना होता है । मूर्तिपूजक श्रावक जब पौषधव्रत लेता है - जब भी उसको जिनपूजा का निषेध होता है, उनको पौषध में भावपूजा का अधिकार है ।
इसलिए - साधु को द्रव्यपूजा निषिद्ध होते हुए भी व्रती-अव्रती जैनश्रावकों को जिनपूजा-द्रव्यपूजा का निषेध नहीं हैं - ऐसा विवाहचूलिका सूत्र के पाठ से भी सिद्ध होता है । ____ व्यवहार चूलिका की भी यही बात है। आधारहीन सूत्रपाठ, फिर शब्दों का हेर-फेर, फिर असंगत-अप्रामाणिक अर्थ, फिर कुकल्पित कुतर्क !
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