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परिशिष्ठ-३ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा असुरकुमार देव उर्ध्व गमन करते है अर्थात् सौधर्म देवलोक तक जाते है ? .
इसी प्रश्न के उत्तर में भगवान महावीर तीन आश्रय बताते है "अरहंत वा अरहंत चेइयाणिवा अणागारेवा भविअप्पणों, यहां पर स्पष्ट है कि अरहंत या अरहंत चेझ्याणिवा एवं अणगारेवा यहां परअणगारे वा के साथ अणगारचेइयाणिवा का उल्लेख नहीं है यह भी ध्यान दिजीये कि अरहंत प्रभु काज्ञान चाहे मनपर्यव हो या केवल ज्ञान; अरहंत प्रभूसे भिन्न (अलग) नहीं होता। ज्ञान और ज्ञानी जुदा नहीं होते अतः आपकी तरह यदि चैत्यका अर्थ ज्ञान करें तो अरहंत प्रभु का ज्ञानजुदा कैसे हो सकता है ?
ज्ञानी से ज्ञान जब जुदा (अलग) नहीं होता तो दूसरा विकल्प अरहंत चेइयाणी वा लिखने की जरुरत ही क्या ? (यदिज्ञान अर्थ होता तो) एवं जिस तरह अरहंत प्रभूछद्मस्थ अवस्था में मनः पर्यवज्ञानी है और केवल होने के बाद केवल ज्ञानी है। ऐसी दो अवस्थाएं तो अणगार अर्थात साधु भगवंत में भी है कई अणगार साधु भगवंत अवधि ज्ञानी है तो कोई मनः पर्यवज्ञानी भी हो सकता है और कोई केवल ज्ञानी भी होते है अर्थात छद्मस्थ और केवली का भेद तो साधु भगवंत (अणगार) में भी है ही फिर यहां पर अणगारे वा के साथ अणगार चेइयाणिवा का उल्लेख क्यों नहीं किया गया ? कृपया इन दोनों प्रसंगों पर शांतिपूर्वक तटस्थता से विचार किजीयेगा
हमारे विचार से तो अरहंत प्रभू के साथ अरहंत चेइयाणिवा लिखने का कारण अरहंत प्रभू की अनुपस्थिति में या अरहंत प्रभू के अतिरिक्त अर्थात् स्वयं अरहंत प्रभूसे भिन्न अलगअरहंत प्रभूकी प्रतिमा भी शरण भूत है आश्रय का कारण है परन्तु अणगारेवा के साथ मात्र भविअप्पणों ही है अणगार चेइयाणि वा का उल्लेख नहीं है कारण यदि आपकी मान्यतानुसार माना जाए तो जिस तरह अरहंत प्रभू की छमस्थ अवस्था और केवली अवस्था है। इसी तरह यह भेद तो साधु भगवंत में भी है जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है। अतः इसका कारण समझने के लिए मैने आपको जो पत्र पत्रिकाएं भेजी है उसमें से एक पत्रिका जैन दर्शन में 'गुरु मंदिर गुरु प्रतिमा' क्या अनुकरणीय है ? सोचिये। शांति से पढ़िये उसमें आने वाले तीर्थंकर नामकर्म की विशेषता तीर्थंकर प्रभू की छद्मस्थ अवस्था का भी निर्दोष
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