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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
१६१ कह सकता है, उसमें उसकी आशयशुद्धि जरूरी है अपने भक्त बने रहे यह आशय अशुभ है, अतः टीकाकार ने उसे शिथिलाचार में गिना है। जब की डोशीजी इस बात को अलग ढंग से पेश करते हैं "देखो यह मूर्ति प्राचीन है, तुम्हारे पूर्वज उन्हें पूजते थे, तुम भी इनकी पूजा करो ।'' मूल टीका में प्राचीनता का कोई उल्लेख नहीं है । तो भी प्राचीनता को चैत्यवासियों पर गलत कलंक लगाने हेतु यहां पर उठा लाये हैं ।
आचार्य हरिभद्रसूरिजी अपने संबोध प्रकरणादि ग्रंथो में चैत्यवासियों की अनुचित प्रवृत्ति की घोषणा कर चुके थे, पर ऐसा कहीं नहीं लिखा कि चैत्यवासी अपनी प्रवृत्ति की पुष्टि के लिये अमुक ग्रंथ बनाते-बताते थे, मूर्तियों पर संवत् गलत लिखते थे, बदलते थे। यह सब डोशीजी के स्वकुमतसिद्धि के कुतर्क हैं सब तथ्यहीन कल्पनाएँ हैं ।
चौथे उदाहरण में डोशीजी अपने स्वभावानुसार प्रत्यक्ष वस्तु में कुतर्क लडा रहे हैं । अजमेर (वडली) का वीर सं. ८४ का शिलालेख तो सबके लिए प्रमाण हैं । वह शिला मूर्ति का खंड (नीचे का) हो सकता है अथवा जिनमंदिर की वह शिला हो सकती है । मूर्ति मंदिर के द्वेष से बिना किसी प्रमाण उसे किसी घर का शिलालेख बताने में विद्वानों में हंसी पात्र ही बना जाएगा । भूगर्भ से प्रकट होते शिलालेखादि प्राय: मूर्ति-मंदिरों के होते हैं, मकानों के नहीं । वर्तमान में भी प्रायः मकानों पर लेख दिखने में नहीं आते । वीर संवत् धार्मिकता से संबंध रखता है। व्यवहार में तो व्यवहारिक संवत् का उपयोग है। जैसे वर्तमान में भी व्यवहार में वीर संवत् होते हुए भी विक्रम संवत् की प्रचलना हैं। अगर मकान का लेख होने की कुकल्पना भी करो तो उस वक्त प्रचलित व्यवहारिक कनिष्क, गुप्त संवत् उससे भी प्राचीन जो संवत् प्रचलित थे उनका उल्लेख होता ।
स्थानकवासी विद्वान संत संतबालजी ने भी, जो पहले अशोक के समय से मूर्तिपूजा मानते थे, लेख को प्रामाणिक मानकर ही वीर सं० ८४ से मूर्तिपूजा मानी है। डोशीजी क्या उनसे भी ज्यादा विद्वान् है ? जो अप्रामाणिक कुतर्क करते है।
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